Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-37


भगवान के ध्यान में तन्मयता नहीं होगी तो संसार का ध्यान होता रहेगा।
उसे छोड़ने का प्रयत्न करो। ईश्वर का ध्यान यदि न हो सके तो आपत्ति नहीं,
किन्तु संसार का,नर-नारी का,धन-सम्पति का ध्यान न करो।
दर्शन के बाद भी ध्यान की आवश्यकता है। 
मंदिर के चौके पर बैठने की प्रथाका कारण  भगवान का ध्यान ही है। 
मंदिर में जिस स्वरूप का दर्शन किया हो,उसी का ध्यान और चिंतन चौके पर बैठकर  करो ।  

आरम्भ में व्यासजी ध्यान करने की आज्ञा देते है।
सत्कर्म करते समय अनेक विघ्न उपस्थित होते है,जिसका नाश परमात्मा के ध्यान से होता है।
मंगलाचरण में व्यासजी लिखते है-
“सत्यम परम धीमहि। “सत्यस्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते है।
ऐसा व्यासजी ने लिखा है क्योकि यदि वे श्रीकृष्ण का ही ध्यान करने की बात लिखते तो शिवभक्त,दत्तात्रेयभक्त,देवीभक्त आदि ऐसा मानते कि  भागवत  तो श्रीकृष्ण के भक्तों  का ही ग्रन्थ है।
व्यासजी ने किसी विशिष्ट रूप से ध्यान का निर्देश नहीं किया है।
केवल सत्यस्वरूप प्रभु का ध्यान करने को कहा है।
जिसे जिस किसी रूप के प्रति आस्था  हो उसी का ध्यान वह करे।

संसार में विभिन्न लोगों  की रूचि एक सी नहीं होती।
शिवमहिम्न स्तोत्र में कहा है :-
सांगोपांग वेद,सांख्यशास्त्र,योगशास्त्र,पाशुपतशास्त्र,वैष्णवशास्त्र आदि
भिन्न शास्त्रों  की आस्था वाले लोग अपने-अपने शास्त्र को सर्वोत्तम मानते है
और अपनी-अपनी मनोवृति के अनुसार सरल या कठिन मार्ग बताते-मानते है,
किन्तु सच तो यह  इन सभी शास्त्रनुसारी मतों का प्राप्तिस्थान,लक्ष्य तो एक ही है -
जैसे - तरह सरल और टेढ़ी-मेढ़ी- सभी नदियाँ  एक ही समुद्र में जा मिलती है।

हर किसी की रूचि और आस्था भिन्न-भिन्न होने के कारण  
शिव,गणेश,रामचन्द्र आदि विविध स्वरूपों को परमात्मा धारण करते है।
सत्य,अविनाशी,अबाधित,अपरिवर्तनशील है।
सुख,दुःख,लाभ,हानि आदि के कारण  परमेश्वर के स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता।

गीताजी में कहते है:-
दुःख के प्राप्ति के समय जिसका मन उद्वेगरहित रहता है
और सुख के समय जिसका मन स्पृहारहित रहता है, वो ही स्थितप्रज्ञ है।

श्रीकृष्ण ने अपने वचन के अनुसार  ही जीवन जिया।  
श्रीरामचन्द्रजी को भी राज्याभिषेक और वनवास के समय एक सा आनन्द  था।
श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानीयों से सेवा पाते समय,
और सुवर्ण की द्वारिका का  सर्वनाश के समय एक-सा ही आनन्दाभुव हुआ था।

श्रीकृष्ण उध्धव  से कहते है- उध्धव , यह सब (जगत) मिथ्या है,केवल मै  ही एक सत्य  हूँ ।  
जगत असत्य है,परमात्मा सत्य है।
भूत,वर्तमान और भविष्य में जो एक ही स्वरुप धारण करे, वही  सत्य है।

इसीसे ही व्यासजी कहते है कि- हम सत्य का ही ध्यान करते है। किसी और देव का नहीं।


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