Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-38


सत्य से ही स्नेह भाव रखो। यदि सुखी होना है तो सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ  प्रेम करो।
जगत असत्य है। दुनिया के पदार्थ दुःखदायी  है।
व्यवहार में जगत सत्य सा ही लगता है किन्तु परमार्थ-दृष्टिसे,तात्विक दृष्टि से देखें  तो जगत सत्य नहीं है।
यही कारण  है की ज्ञानी पुरुष जगत का चिन्तन  नहीं करते और जगत्  अनित्य है,ऐसा बार-बार सोचते है।

जिसे परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान होता है,वे जगत का सम्मान नहीं करते।
स्वप्न के टूट जाने के बाद जैसे स्वप्न मिथ्या लगता है,
वैसे ही भगवान  के साक्षात्कार के बाद जगत मिथ्या लगता है।

मनुष्य सदा एक स्वरुप में नहीं रहता।
ईश्वर का एक ही स्वरुप है। उस पर काम,क्रोध,लोभ आदि असर नहीं डाल  सकते। वह स्वयं आनन्दस्वरूप है। ईश्वर के बिना जो भी दिखाई देता है,वह सब माया है,असत्य है और  भ्रम  है।
नकली रूपये से किसी को मोह नहीं होता। उसी प्रकार इस असत्य,नकली संसार से मोह न करो।
स्त्री-पुरुष मिलन सुखद है,किन्तु वियोग अति दुःखद  है। वियोग दुखदायी  है,ऐसा समझकर इस जगत के जीवों  से प्रेम न करो। परमात्मा अविनाशी है,इसलिए उन्ही से प्रेम करो।

अँधेरे में रस्सी सर्प सी लगती है किन्तु प्रकाश होने पर,ज्ञान होने से ही यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होता है।
इस "सर्प-रज्जु-न्याय" की दृष्टि से ही -इस असत्य संसार को अज्ञानी मानव सत्य मानता है।
जगत का भास  ईश्वर के प्रति अज्ञान होने के कारण  ही होता है।
ईश्वर का ज्ञान न होने से ही तुम्हे यह जगत् लगता है।

वैसे तो यह  दृश्य जगत भ्रामक है,मिथ्या है,
किन्तु परमात्मा पर आधारित होने के कारण  यह सत्य सा लगता है।
परमात्मा सत्य है,इसलिए जगत्  असत्य होने पर भी सत्य-सा ही लगता है।
जगत् का अधिष्ठान,आधार ईश्वर  है और ईश्वर सत्य है --सो जगत भी सत्य लगता है।

यदि राजा नकली मोतियों की माला पहने,
फिर भी उसकी प्रतिष्ठा के कारण  जनता तो उस हार को असली मोतियों का ही मानेगी।
गरीब व्यक्ति का सच्चे मोतियों का हार उसकी गरीबी के कारण  नकली ही समझा जायेगा।
इस तरह यह जगत् नकली मोतियों का हार है,जिसे परमात्मा ने अपने गले में पहन रखा है।

जगत् में रहते हुए भी उसे मिथ्या समझो। दृश्यमान चीज नाशवान होती है। "यद्  दृष्टम्  तद  नष्टम्। "
इसलिए बाह्य दृश्यमान जगत्  को आभास-मात्र समझो।

भागवत  के प्रथम स्कंध के पहले अध्याय का दूसरा श्लोक भागवत  का प्रस्तावनारूप है।
भागवत  का मुख्य  विषय ,क्या है,उसका अधिकारी कौन है,आदि का वर्णन इस दूसरे श्लोक में किया गया है।

जो परमार्थ रूप,जानने योग्य, परम सुखदायी, आध्यात्मिक,आधिभौतिक तथा आधिदैविक ताप को
हरने वाले उस परमात्मा रूप तत्त्व का भागवत  में वर्णन किया गया है।
जिस धर्म में कोई कपट नहीं है,ऐसा निष्कपट धर्म भागवत  का मुख्य विषय है।

नारदजी ने वाल्मीकिजी को “राम” मंत्र का जाप करने को कहा।
वाल्मीकि ने भूल से “राम” के बदले “मरा -मरा” जपना लगे।
फिर भी उनको फल तो “राम”मंत्र के  जाप से ही मिला।

अतिशय पापी के मुख से आसानी से “राम” नहीं निकलता है।
भगवान  का हृदय  में प्रवेश होने से पाप बाहर  निकलना पड़ता है। सौ  पाप भगवान  का नाम नहीं लेने देता।


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