भोग के लिए की गयी भक्ति से भगवान प्रसन्न नहीं होते।
भोग के लिए भक्ति करने वाले को संसार प्यारा है,भगवान नहीं।
भगवान के लिए ही भक्ति करो। भक्ति का फल भगवान ही होना चाहिए,संसार-सुख नहीं।
जो ऐसा सोचते है कि भगवान मेरा काम कर दें या भगवान मेरे काम आये,उसे वैष्णव नहीं कहा जा सकता।
भगवान से कोई सन्तान मांगता है तो कोई धन।
तब भगवान सोचते है कि मेरे लिए तो मंदिर में कोई आता ही नहीं है,
सब अपना-अपना मनोरथ मुझसे पूरा करने के लिए ही आते है।
सच्चा वैषणव तो भगवान से कहेगा की
मै तो अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ,कर्मेन्द्रियाँ ,मन कुछ तुम्हारे चरणों में अर्पित करने के लिए आया हूँ।
सच्चा वैष्णव भगवान से न तो दर्शन मांगता है और न तो मुक्ति।
वह यदि कुछ भी मांगेगा तो केवल इतना ही कि वह भगवान की सेवा में ही तन्मय होता रहे।
मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है,प्रेम का प्रमाण घटने लगता है। इसलिए प्रभु से कुछ भी न मांगो।
भगवान को अपना ऋणी बनाओ।
श्रीरामचन्द्रजी ने राज्याभिषेक के प्रसंग पर सभी वानरों को भेंट दी किन्तु हनुमानजी को कुछ नहीं दिया।
इस घटना से सीताजी को दुःख हुआ। उन्होंने राम से कहा कि हनुमानजी को भी कुछ दीजिये।
रामजी ने कहा की उसे क्या दू ? उसने तो मुझ पर कितने उपकार किये है और मुझे ऋणी बनाया है।
जब सीताजी की माहिती लेकर हनुमानजी वापस आये-तब-श्री राम हनुमानजी से कहते है-
"प्रति उपकार करउ का तोरा! सन्मुख होइ न सकत मन मोरा!"
हनुमानजी के उपकार के सामने -तीन भुवन के मालिक की नजर नीची हुई है,वो नजर नहीं मिला शके।
शुध्ध प्रेम में लेने की भावना नहीं होती,देने की होती है।
"मोह" भोग की इच्छा करता है जब कि "प्रेम" भोग देता है। प्रेम में मांग नहीं होती ।
जब, प्रेम में अपेक्षा का भाव जगा कि सच्चा प्रेम भागा ही समझो।
भक्ति में मांगी हुई चीज मिलेगी जरूर किन्तु भगवान हाथ से निकल जायेंगे। नित्य देनेवाला चला जायगा।
गीता में कहा है -
सकामी भक्त जिन-जिन देवताओं की पूजा करते है,उन सभी देवताओं द्वारा-
मै इच्छित भोगों की पूर्ति करता हूँ . किन्तु मेरी निष्काम भॉति करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त करते है।
भगवान से धन मांगोगे तो धन तो मिलेगा किन्तु भगवान स्वयं नहीं मिलेंगे।
भगवान से जितना मांगोगे उतना वह देंगे पर प्रेम कम हो जायेगा।
व्यवहार में भी हम यह अनुभव करते है कि जब तक कुच्छ माँगा न जाये
तब तक दो मित्रों की मैत्री प्रेमपूर्ण रहती है।
गोपियाँ नैन (दृष्टी) श्रीकृष्ण को देती है और मन भी।
वे श्रीकृष्ण से कुछ भी मांगने की अपेक्षा सर्वस्व अर्पण ही करती है।
भगवान से कुछ मांगोगे तो प्रेम खंडित होगा। हमेशा ऐसा ही मानिए की प्रभु ने मुझे बहुत दिया है।