सेवा में क्रिया मुख्य नहीं है,भाव प्रधान है। सब विषयो में से मन हटाओगे तब सेवा में आनन्द आएगा।
“सर्वेषाम् अविरोधेन ब्रह्मकर्म समारभे।”
सेवा करने बैठो तो प्रथम -मूर्ति में -ईशवर की भावना करो।
सेवा के बाद भी ईश्वर के दर्शन न हो- तो दोष अपना खुद का ही है।
संसार के विषयों को मन से हटाओ। परमात्मा की सेवा तभी होगी,जब संसार के विषयों से प्रेम कम होगा।
परमात्मा से प्रेम करना है तो विषयों का प्रेम और मोह छोड़ना होगा।
धीरे-धीरे सयंम और वैराग्य बढ़ाओगे,तो ईश्वर-सेवा में,ध्यान में आनन्द आयेगा। ईश्वर के दर्शन होगे।
एक बार एक चौबेजी मथुरा से गोकुल जाने के लिए निकले।
नौका में बैठकर यमुनाजी पार करना था। चौबेजी भांग के नशे में थे। नौका में बैठकर उसे चलाने लगे।
उन्हें अपने बाहुबल पर पूर्ण विश्वाश होने से कहने लगे कि- "नाव अभी गोकुल पहुँच जाएगी। "
नशेमे सारी रात नाव चलाई। सुबह हुई-और देखा-तो सोचने लगे- "यह मथुरा जैसा कौन सा गाँव आया। "
चौबेजी ने किसीसे पूछा-कि-"ये कौनसा गांव है?" उत्तर मिला कि- "ये मथुरा है। "
चौबेजी मथुरा से रात को निकले थे,पूरी रत नाव चलाई,फिरभी वही के वही जगा पर थे।
अब-,जब,नशा उतर गया तो- चौबेजी को अपनी मूर्खता का ख्याल आ गया कि-
सारी रात नाव चलाई किन्तु नाव तो रस्सी के जरिये घाट से बंधी हुई थी।
नशे की असरमें वह नाव खोलना ही भूल गए थे और सारी रात चलाने पर भी वही ही रहे।
यह कथा हँसने के लिए नहीं है। यही कथा हम सबकी है।
सभी इन्द्रिय-सुख के नशे में चूर है। स्पर्श और संसार सुख का नशा चढ़ा हुआ है।
धन के नशे में मनुष्य मंदिर जाता है किन्तु नशे में होने के कारण ईश्वर को सच्चे मन से दर्शन नहीं करता। अतः उसे दर्शन में आनन्द नहीं आता।
दुनिया के विषय सुन्दर नहीं है। केवल परमात्मा ही सुन्दर है।
वासना रूपी डोरी से जीव की गाँठ संसार के साथ बंधी है उसे छुड़ाना है।
वासना किसी को आगे बढ़ने नहीं देती। वासना की डोरी को नहीं तोड़ोगे तब तक आगे नहीं बढ़ सकोगे।
ह्रदय में जब कोई वासना नहीं रहेगी,वैराग्य बढ़ेगा-तब भक्ति में आनन्द आयेगा।
बिना वैराग्य भक्ति रोती है। भोग-वासना भक्ति में बाधक है।
सयंम और सदाचार बढ़ाओगे तो भक्ति में आनन्द आएगा।
ज्ञान और वैराग्य-सहित भक्ति बढे तो ईश्वर का साक्षात्कार होता है।