मुझे संत सेवा करने का लाभ मिला। उनके संग से मुझे भक्ति का रंग लगा।
सेवा करने वालों पर संत कृपा करते है। मेरे गुरु सच्चे संत थे। अमानी थे। दुसरो को मान देते थे।
उन्होंने मेरा नाम हरिदास रखा।
गुरुदेव प्रेम की मूर्ति थे। संतो को सबपर सद्भाव होता है। मेरे पर गुरुदेव की विशिष्ट कृपा थी ।
गुरूजी के उठने से पहले मै उठता था। और उनकी पूजा के लिए फूल-तुलसी ले आता था।
गुरूजी पुरे दिन ब्रह्म-सूत्र की चर्चा करते और रात को कृष्ण-कीर्तन करते। उनके इष्टदेव बालकृष्ण थे।
संत-ऋषि जब बाल -कृष्ण की आराधना करते है तो वे जल्दी प्रसन्न होते है।
और दौड़ के अपने भक्त के पास जाते है।
एक बार कथा में मैंने मेरे गुरुदेव से बाल-कृष्ण के वर्णन की बात सुनी। मुझे बहुत आनंद हुआ और
प्रभु के प्रति मेरा सद्भाव जागा। मेरा खेलना छूट गया।
संत तीन प्रकार से कृपा करते है। संत जिसकी ओर बार-बार दृष्टिपात करते है, उसका जीवन सुधरता है।
मेरे गुरु मुझे बार-बार निहारते थे। वे कहते कि यह बालक बड़ा समझदार है और खुश होते। वे बहुत प्रसन्न थे। कहते है कि-संत जिस पर नजर डाले उसका कल्याण होता है।
एक बार संतो के खाने के बाद मै उनकी जूठी पत्तलें उठा रहा था। मुझे भी भूख लगी थी।
गुरूजी ने मुझे इस प्रकार सेवा करते देखा। उनका ह्रदय पिघला।
उन्होंने मुझे पूछा कि- हरिदास तुमने भोजन किया।? तो मैंने कहा कि-नहीं,सेवा के बादमे भोजन करुगा।
गुरुदेव को मुझपर दया आई। यह बालक समझदार है।
गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी कि पत्तलों में मैंने महाप्रसाद रखा है यह तुम खाओ। मैंने वह प्रसाद खाया।
शास्त्रों की मर्यादा है कि - गुरु की आज्ञा बिना उच्छिष्ट भी नही खाना।
संत जब कल्याण की भावना से प्रसाद देते है तो कल्याण होता है।
संत-ह्रदय पिघलने पर बुलाकर देते है तो वह प्रसन्न हुए ऐसा मानना। मैंने प्रसाद ग्रहण किया।
मेरे सब पाप नष्ट हुए। मुझे भक्ति का रंग लगा। मुझे कृष्ण प्रेम का रंग लगा। उस दिन मै कीर्तन में गया। कीर्तन में निराला आनंद आया और मै नाचने लगा। अति आनन्द में देहाध्यास छूटता है।
भक्ति का रंग मुझे उसी दिन लगा। मुझे राधा-कृष्ण का अनुभव हुआ।
नारदजी व्यासजी को अपना आत्मचरित्र सुनाते हैं।
मै कम बोलता था इसलिए मुझपर संतो की कृपा हुई। सेवा में सावधान रहता था।
गुरुदेव की मुझ पर खास कृपा हुई। और मुझे वासुदेव का मंत्र दिया।
और मुझे कहा कि -इस वासुदेव गायत्री का हमेशा जप करो।
(पहले स्कंध में पाँचवे अध्याय का ३७ वा श्लोक यह वासुदेव गायत्री का मंत्र है। )
"नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि। प्रधुम्नायनिरुध्धाय नमः संकर्षणाय च। "
चार मास इसी प्रकार गुरुदेव की सेवा की। गुरूजी का वह गाँव छोड़ कर जाने का दिन आया।
गुरुदेव अब चले जायेंगे सोचकर बहुत दुःख हुआ। मैंने गुरूजी से कहा- मुझे भी साथ ले जाइये।
मुझे मत छोड़ो। मै आपकी शरण में आया हूँ। मुझे सेवा में साथ ले चलो। मेरी उपेक्षा मत करो।
गुरुदेव ने विधाता का लेख पढ़कर मुझे कहा - तू अपनी माता का ऋणानुबन्धी पुत्र है।
इस जन्म में तुम्हे उसका ऋण चुकाना है इसलिए माता का त्याग मत करना। तू अगर माता को छोड़कर
आएगा तो तुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। तुम्हारी माता की आहें तुम्हारे भजन में विक्षेप करेगी।
तुम घर में रहकर प्रभु का भजन करो।