Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-56



नारदजी अपनी कहानी व्यासजी को सुनाते हुए कहते है-कि-
"मेरे गुरूजी मुझे छोड़कर चले गए। मुझे अति दुःख हुआ। "

पूर्वजन्मके गुरु का नाम लेते ही नारदजी रोने लगे।
"सच्चे गुरु को कोई स्वार्थ नहीं होता। मैंने निश्चय करके जप शुरू किया।
जप किया बिना मुझे चैन नहीं आता।  घूमते-फिरते और स्वप्ना में भी मै  जप करता था। "

सन्त-महात्माओ  कहते है- बिस्तर पर सोने से पहले हमेशा जप करो। जप की धारा न टूटे।
एक वर्ष तक वाणी से जप करो। तीन वर्ष कंठ से जप करो। तीन वर्ष बाद मन से जप करो।
इसके बाद अजपा जप होता है।

"माँ को यह पसंद नहीं था। फिर भी बारह वर्ष तक सोलह अक्षरी महामंत्र का जप किया।
माँ की बुध्धि  भगवान बदल देंगे,यह सोचकर माँ को मैंने कुछ भी नहीं कहा।
मैंने अपनी माता का कभी अनादर नहीं किया।
एक दिन  माँ गौशाला में गई। वहाँ  उनको सर्प ने काट लिया। माता ने शरीर का त्याग किया।
प्रभु ने कृपा की। माँ के देह का अग्नि-संस्कार किया।
अब मै  मातृ-ऋण  से मुक्त हुआ। मुझे आनंद हुआ।

घर में जो कुछ था वो माँके क्रिया-कर्म में लिया। मुझे प्रभु में श्रध्धा  थी,अतः मैंने कुछ संग्रह नहीं किया।
जन्म से पहले मेरे लिए माता के स्तन का दूध पैदा करने वाला दयालु भगवान मेरे पोषण की  व्यवस्था करेगा। परमत्मा विश्वंभर  है। पहने हुए कपड़ों  के साथ मैंने गृहत्याग किया।

जिसका जीवन केवल ईश्वर के लिए है,वह कभी संग्रह नहीं करेगा,
भगवान नास्तिक का भी पोषण करते है। नास्तिक कहता है कि मै  ईश्वर को नहीं मानता,
परन्तु मेरा परमात्मा कहता है बेटा,तू मुझे नहीं मानता मगर मै तुझे मानता हूँ।
जो ईश्वर का नियम,धर्म को भी-जो मानता नहीं ऐसे नास्तिक का भी परमात्मा पोषण करते है।

"मैंने कभी भीख नहीं मांगी,मगर अपने प्रभु की कृपा से मै कभी भूखा न रहा।
भगवत स्मरण करता मै  फिरता था। बारह वर्षो तक मैंने अनेक तीर्थो का भ्रमण किया।
इसके  बाद मै  घूमते-फिरते मै  गंगा नदी के तट  पर पहुंचा।
गंगा-स्नान किया,इसके बाद एक पीपल के वृक्ष के निचे बैठकर  मे जप करता था।
गुरुदेवने आज्ञा की थी की खूब जप करना। मैंने जप नहीं छोड़ा।और गंगा किनारे बारह वर्ष रहा।

चौबीस साल से भावना करता था कि कन्हैया मेरे साथ है।
मेरे पूर्वजन्म के पाप बहुत होंगे इसलिए मुझे प्रभु के दर्शन नहीं हो रहे है।
परन्तु श्रध्धा  संपूर्ण  थी इस कारण  एक दिन प्रभु दर्शन अवश्य देंगे।
भावना में भाव से मुझे श्रीकृष्ण दिखते  थे। मगर मुझे बालकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो रहे थे।
मुझे उनके प्रत्यक्ष दर्शन करने थे। मुझे उनसे बहुत बातें  करनी थी।
मुझे लगा कि कब श्रीकृष्ण मुझे अपनाएंगे?

मेरे लाला ने कृपा की। एक दिन ध्यान में मुझे नीला प्रकाश दिखा। प्रकाश को देख में जप करता था।
वहाँ  प्रकाश में से बालकृष्ण का स्वरुप प्रगट हुआ। मुझे बालकृष्ण के मनोहर स्वरुप की झांकी हुई।
मेरे कृष्ण ने कस्तूरी का तिलक लगाया था। वक्षस्थल में कौस्तुभमणि की माला धारण की थी।
नाक में मोती और आँखे प्रेम से भरी थी।
मुझे जो आनंद हुआ उसका वर्णन करने की शक्ति सरस्वती में भी नहीं है।


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