नारदजी कहते है -आप तो ज्ञानी है,क्या,आप अपना स्वरुप भूले तो नहीं है?
आप समाधी में बैठिये और समाधी में जो दिखे वाही लिखिए।
बहिर्मुख इन्द्रियों को अन्तर्मुख करने से समाधी ईश्वर के समीप पहुँचाती है।
ईश्वर के साथ एक होना ही समाधी है।
नारद की इस कथा का तात्पर्य है-कि-नारद जब तक न मिले तब तक नारायण के दर्शन नहीं होते।
संसार में आने के बाद यह जीव अपने स्वरूप को भूलता है।
कोई संत कृपा करे तब जीव अपने स्वरूप का ख्याल करता है। व्यास नारायणको भी नारद की जरूरत पड़ी थी।
इसके बाद नारदजी ब्रह्मलोक में सिधार गए।
व्यासजी ने प्राणायाम से दृष्टी अन्तर्मुख की। वहाँ ह्रदय-गुफा में बालकृष्ण के दर्शन हुए।
व्यासजी को सब लीलाओ के दर्शन हुए है।
व्यासजी को नारदजी ने "स्वरूप का भान" कराया।
इसके परिणामस्वरूप व्यासजी ने श्रीमद्भागवत की रचना की।
दूसरे पुराणों में ज्ञान,कर्म,आचार,धर्म आदि प्रधान है,परन्तु भागवत पुराण में प्रेम प्रधान है,भक्ति प्रधान है।
जो भगवान के साथ प्रेम कर सके वही भागवत के अधिकारी है।
वाल्मीकि रामायण आचार धर्म-प्रधान ग्रन्थ है,जबकि तुलसी रामायण भक्ति-प्रधान ग्रन्थ है।
वाल्मीकिजी को अपने जन्म में कथा करने से तृप्ति न हुई। भगवान की मंगलमय लीला कथा का भक्ति से
प्रेम पूर्वक वर्णन करना बाकी रह गया,इसलिए उन्होंने कलियुग में तुलसीदास के रूप में जन्म लिया।
यह तो सबको पता है कि वृक्ष की छाल तथा पत्तो में जो रास होता है उससे वृक्ष के फल में विशेष रस होता है। इस श्रीमद भागवत रूप फल का मोक्ष मिलने तक आप बार-बार पान कीजिये। जब तक जीव और ईश्वर का मिलन न हो तब तक इस प्रेम का पान करो। भागवत का आस्वादन किया करो।
वेदान्त कहता है सर्व का त्याग करके भगवान के पीछे पड़ो। वेदान्त त्याग की आज्ञा करता है।
जब की संसारियों से कुछ छूटता नहीं है। ऐसो के उध्धार के लिए कौन सा उपाय है ?
उपाय है। त्याग न कर सको तो कोई हर्जा नहीं,परन्तु अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पण करो और
अनासक्त रहकर ही उसे भोगो।
व्यासजी ने परीक्षित को निमित्त बनाकर संसार में फ़से लोगो के लिए यह भगवत की कथा की।
भागवत खासकर संसारियों के लिए है। "प्रभु प्रेम के सिवा शुष्क ज्ञान की शोभा नहीं। "
यह बताने का भागवत का उदेश्य है। भक्ति बिना ज्ञान शुष्क है।
जब ज्ञान -वैराग्य से दृढ़ किया हुआ नहीं होता है,
तो ऐसा ज्ञान मरण को -सुधार ने के बदले संभव है की -मरण को बिगाड़े।
संभव है ऐसा ज्ञान अंतकाल में धोखा दे।
मौत को भक्ति सुधारती है।
विधि-निषेध की मर्यादा त्यागे हुए -बड़े बड़े ऋषि भी भगवान के अनंत कल्याणमय गुणों के वर्णन में
सदा रत रहते है। ऐसी है भक्ति की महिमा।