Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-60



ज्ञानी को अभिमान सताता है,भक्त को नहीं।
भक्ति अनेक सद्गुणों  को लाती है,भक्ति सर्व गुणों की जननी है। भक्त नम्र  होता है।
भगवान की कथा और भगवान के स्मरणसे ह्रदय को आद्र  बनाओ और उसके मंगलमय नाम का जप करो।
यही कलियुग में मुक्ति पाने का मार्ग है। विषयों  का बंधन मनुष्य छोड़े  तभी मन को सच्चा आनंद मिलता है। सयंम और सदाचार को धीरे-धीरे बढ़ाते जाओ तो भक्ति में आनंद आएगा।
आचार-विचार शुध्ध  होगा तो भक्ति को पुष्टि मिलेगी।

भागवत -शास्त्र मनुष्य को काल के मुख से छुड़ाता  है।
काल के मुख से छूटना हो तो काल के भी काल श्रीकृष्ण के शरण में जाओ।
जो सर्वस्व भगवान पर छोड़ते है उनकी चिंता भगवान स्वयं करते है।

महाभारत में एक कथा है।
युध्ध  में दुर्योधन के तना देने पर भीष्मपितामह ने प्रतिज्ञा ली थी कि -
कल मै अर्जुन को मारूँगा  या मै मरूंगा। इस प्रतिज्ञा से सब घबराये।
यह सुनकर कृष्णा भगवान को चैन नहीं आया। रात को नींद नहीं आई। भीष्म की प्रतिज्ञा सुनकर
अर्जुन की क्या दशा हुई होगी यह सोचकर भगवान अर्जुन की स्थिति देखने आये।
जाकर देखा तो अर्जुन तो गहरी नींद सो रहा था।
भगवान ने सोचा कि  भीष्म ने ऐसी प्रतिज्ञा ली है तो भी यह शान्ति से कैसे सो रहा है।
उन्होंने अर्जुन को जगाया और पूछा-तुमने भी भीष्म की प्रतिज्ञा सुनी है न?
अर्जुन ने कहा-हाँ ,सुनी है।

श्रीकृष्ण ने कहा-तो तुम्हे मृत्यु का भय नहीं है,चिंता  नहीं है?
अर्जुन ने कहा-मेरी चिंता करने वाला मेरा स्वामी है। वह जगता है इसलिए मै शयन करता हूँ।
वह मेरी चिंता करेगा-तो फिर मै किसलिए चिंता करू।
इस तरह सब ईश्वर पर छोड़ो ।मनुष्यकी चिंता जब तक ईश्वरको न हो जाये,तब तक वह निश्चिन्त नहीं होता।

प्रथम स्कंध अधिकार लीला है। अधिकार बिना संत मिले तो उसकी ओर  सद्भाव नहीं जागता।
केवल प्रभु कृपा से ही सन्त  मिलते है। जब तक मन शुध्ध  नहीं होता तब तक प्रभु की कृपा नहीं होगी।
संत बनोगे तो संत मिल जायेंगे। संत देखने की दृष्टी देते है कि  संसार के पदार्थो को देखने में आनंद है,
उनके उपभोग में आनंद नहीं है। यह संसार ईश्वर का स्वरूप है। इसी कारण जगत को ईश्वरमय देखो।

जगत में संतो का अभाव नहीं है परन्तु सद्शिष्यो का अभाव  है।
जिसका अधिकार सिध्ध  हुआ है,उसे संत मिलते है।
जिसकी आँख में ईश्वर है वह सर्व में ईश्वर का अनुभव करता है।

इस जगत में निर्दोष  एक परमात्मा है। संतोमें भी कोई एकाद दोष  तो रहता ही है-
क्याकि-पूर्णता प्रगट होने पर तो यह जीव इस शरीर में नहीं रह सकता।
यह ब्रह्माजी की सृष्टि गुण -दोष से भरी हुई है। जगत में सब प्रकार से कोई सुखी हो नहीं सका है।

संसार के प्रत्येक पदार्थ में दोष है,और गुण भी है।
दॄष्टि  को ऐसी गुणमयी बनाओ कि  किसी के दोष न देख सको। जब तक तुम्हारी दॄष्टि गुण -दोषो से
भरी हुई है  संत में भी आपको दोष दीखेंगे। जिसकी दॄष्टि  गुणमयी है वही  संत है।
संभव है कि ईश्वर भी अपने भक्तों में एकाध दोष रहने देता हो कि  जिससे  भक्तो को नजर न लगे।
किसी के पाप का विचार न करो,या वाणी से उन पापों  का उच्चार भी न करो।


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