Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-62



प्रथम स्कंध अधिकार लीला है। वक्ता और श्रोता का अधिकारी कौन?
प्रथम स्कंध के तीन प्रकरण है - उत्तमाधिकार,मध्यमाधिकार और तीसरा कनिष्ठाधिकार।
परीक्षित और शुकदेवजी को -उत्तम-श्रोता-वक्ता-बताया गया है।

समाज को सुधरने की इच्छा अनेक बार प्रभु भजन और प्रभु मिलन  में बाधक  होती है।
दुसरो को  सुधारने की झंझट में नहीं पड़ना,तुम अपना जीवन सुधारो।
कथा करते समय शुकदेवजी को खबर नहीं थी कि मेरी कथा सुनने के लिए सामने कौन बैठा है।
शुकदेवजी की कथा सुनकर बहुतो का जीवन सुधरता है परन्तु इसका विचार  शुकदेवजी नहीं करते।
जगत में ब्रह्मज्ञानी मिल सकते  है,परन्तु ब्रह्मदृष्टि रखकर विचारनेवाले शुकदेवजी जैसे नहीं मिलते।

कथनी करनी और आचरण एक न हो तब तक शब्द में शक्ति नहीं। आती।
रामदास स्वामी ने कहा है -मैंने किया है -और अनुभव किया है। अब तुम्हे कहता हूँ।
वाणी  और वर्तन एक हो-वह उत्तम वक्ता है।
शुकदेवजी जो बोले है -वह जीवन में उतारकर  बोले है। ऐसी व्यक्ति वन्दनीय  है।

एक बार एक माता अपने बेटे को लेकर एकनाथ महाराज के पास आई। कहने लगी -
“महाराज मेरे पुत्र को गुड खाने की आदत पड़  गई है। अब यह आदत छूटे ऐसे आशीर्वाद दीजिए।”
महाराज ने उस समय आशीर्वाद नहीं दिये -उन्होंने उस समय उस माता से कहा कि -
कुछ दिन के बाद तुम पत्र को लेकर आये। उस समय आशीर्वाद दूँगा,आज नहीं।

फिर कुछ दिनों के बाद माता अपने पुत्र को लेकर आई। महाराजने उस समय उस बालक को आशीर्वाद दिया।
"बेटा बहुत गुड खाना अच्छा नहीं। गुड़  खाना छोड़ दे। "
माता को आश्चर्य हुआ,और महाराज को पूछा कि-ऐसा कहने के लिए आपने सात दिन लगाये।
उस समय आशीर्वाद क्यों नहीं दिया?
महाराज ने कहा कि- उस समय मै खुद गुड़ खता था। मैने अब गुड़ खाना छोड़ दिया है।
अब मेरे आशीर्वाद उसे फलेंगे।

त्याग-और वैराग्य में अलौकिक शक्ति है।
विषय-भोग हमारे हाथ से निकल जाये,छूट  जाये तो दुःख होता है
पर, विषय प्राप्त हो और हम उसको छोड़ दे तो -उसमे अति आनन्द  होता है।
शुकदेवजी में सोलह आने -त्याग-और-वैराग्य है,अतः वह उत्तम वक्ता है।

महाप्रभुजी ने कहा है कि भागवत में समाधि  भाषा मुख्य है।
ईश्वर के ध्यानका जिसने  थोड़ासा भी आनन्द  लिया है,उसे भागवत  का अर्थ जल्दी समझ आता है।
व्यासजी ने एक-एक लीला का प्रत्यक्ष दर्शन किया है। अंतर -दृष्टि  से सब देखा है।

भगवान का स्वरुप अलौकिक है,और अपनी आँखे लौकिक है।
अतः लौकिक आँखे अलौकिक ईश्वर को नहीं देख सकती।
बहार की आँखे बंद करने से अंदर की आँखे खुलती है। तभी परमात्मा के दर्शन होते है।


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