Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-63



जब,व्यासजी ने अठारह हजार श्लोकों  का यह भागवत ग्रन्थ बनाया।
तब,उनको एक चिन्ता  हुई कि अब इसका प्रचार कौन करेगा? इस ग्रन्थ में मैने सब कुछ भर दिया है।
यह भागवत प्रेमशास्त्र है।
माया के साथ-संसार के साथ- प्रेम करने वाला भागवत-शास्त्र का प्रचार नहीं कर सकेगा।
जन्म से जिसे माया से संसर्ग नहीं हुआ है वही इस ग्रन्थ का कर सकेगा। भागवत परमहंस की संहिता है।
बहुत सोचने पर व्यासजी को लगा कि ऐसा योग्य तो-खुद के पुत्र-  शुकदेवजी ही है।

शुकदेवजी को रंभा  भी चलायमान न कर सकी थी।
नारियों  में श्रेष्ठ रंभा है। ऐसी रंभा शुकदेवजी को चलित करने आयी।
उसने शुकदेवजी को कहा- तुम्हारा जीवन वृथा है।
शुकदेवजी उत्तर देते है -मेरा नहीं-विषयभोगी का जीवन वृथा  है। सुनो देवी-कि किसका जीवन वृथा है।
“नीलकमल से सुन्दर जिनके नेत्र है,जिनके आकर्षण अंगों पर केयूर,हार आदि अलंकार शोभायमान है,ऐसे सर्वान्तयामी  नारायण के चरण-कमल में जिसने भक्तिपूर्वक  स्वयं को अर्पण करके इस आवागमन के चक्र को नष्ट नहीं किया,ऐसे लोगो का मनुष्य-देह धारण करना व्यर्थ है। ऐसे लोगो का जीवन वृथा ही है। "

जिनके वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी शोभायमान है,जिनकी ध्वजा में गरुड़जी विराजते है,जो सुदर्शन चक्रधारी है,
ऐसे परमात्मा मुकुंद भगवान का जिसने क्षणमात्र भी स्मरण नहीं किया,ऐसे मनुष्यों का जीवन वृथा ही मानो।  

रंभा  ने जब नारी देह की अति प्रशंसा की तो शुकदेवजी ने रंभा से कहा-
स्त्री का शरीर इतना सुगंधमय और सुन्दर होता है,यह तो मने आज ही जाना।
परमात्मा की प्रेरणा से यदि मुझे दूसरा जन्म लेना होगा तो मै तुम्हारे जैसी माता ही पसंद करूँगा।

शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकारी है। जिस पुत्र ने जन्मते ही पिता व्यासजी से कहा कि -
"आप मेरे पिता नहीं है और मै आपका पुत्र नहीं  हूँ। " और ऐसा कहके-वन की और चल पड़े।
शुकदेवजी जन्मसिध्ध  योगी है। जन्म हुआ कि तुरंत ही तपश्चर्या के लिए वन की ओर प्रयाण किया।
वे सदा ब्रह्मचिंतन में लीन रहते थे।

व्यासजी सोचते है -शुकदेवजी घर आये तो -मै उनको भागवतशास्त्र पढाऊॅ और फिर वे उसका प्रचार करे।
पर उनको वन में से कैसे बुलाया जाये?
शुकदेवजी निर्गुण ब्रह्म चिंतन में आँखे बांध करके-लीन है। यदि-निर्गुण ब्रह्म से उनका चित्त हटाया जाये -
और यदि-वे सगुण ब्रह्म के तरफ मुड़े-तो ही उन्हें संसार का भान  होगा,उनकी आँख तभी खुलेगी.
सगुण-ब्रह्म के प्रति ध्यान खींचनेके लिए-क्यों न,उन्हें भागवत के श्रीकृष्ण-लीला के श्लोक सुनाये जाये।

भागवत के-उन श्लोकों  का जादुई प्रभावका  व्यासजी को अनुभव हो  गया था।
व्यासजी के शिष्यों, जब दर्भसमित लेनेको जंगल में जाते थे , तब  उनको  हिंसक पशुओं  का भय लगता  था।
उन्होंने ये बात व्यासजी से कही।
व्यासजी ने कहा- जब -जब तुमको भय लगे,तब-तब इस भागवत के श्लोकों  का पाठ  किया करो।
श्रीकृष्ण मेरे साथ है  ऐसा विचार  करो। ईश्वर  हमेशा हमारे साथ है,
ऐसा विचार करोगे और अनुभव करोगे तो तुम निर्भय बनोगे।

इसके बाद जब ऋषिकमार वन में जाते थे,और जब हिंसक पशुओ का भय लगे -तब-
वो गुरु-व्यासजी के बताये हुए भागवत के श्लोक का पाठ करते थे-तो-
वह सब  हिंशक पशु वैर भूलकर शांत हो जाते थे ।

व्यासजी सोचते है की- जिन मंत्रो से पशुओंका आकर्षण हुआ,
उन मंत्रो से शुकदेवजी का आकर्षण कैसे नहीं हो सकता?


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