Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-64



व्यासजी ने युक्ति सोची। व्यासजी ने शिष्यों से कहा कि शुकदेवजी जिस वन में तप कर रहें  है,
वहाँ  आप जाइये और वे सुने  इस प्रकार इन दो श्लोकों  का गान कीजिये। उनको ये दो श्लोक सुनाइये।

शिष्य आज्ञा लेकर उस वन में गए। शुकदेवजी स्नान-संध्या करके समाधि में बैठने की तैयारी  में थे।
जो वे समाधि  में बैठ जाते और समाधि  लग जाती तो वे यह श्लोक नहीं सुन पाते।
अतः शिष्यों ने तुरंत श्लोक का गान प्रारंभ किया। उन श्लोक का अर्थ ऐसा है कि-

"श्रीकृष्ण गोप-बालकों  के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे है। उन्होंने मस्तक पर मोरमुकुट धारण किया है
और कानों पर कनेर के पीले पुष्प,शरीर पर पिला पीताम्बर और गले में पाँच  प्रकार के सुगंधित पुष्पों से बनी वैजयंती -माला पहनी है। रंगमंच पर अभिनय करने वाले श्रेष्ठ  नट जैसा सुन्दर वेश है। बाँसुरी के छिद्रो को वे अपने अधरामृत से भर रहे है। उनके पीछे-पीछे गोप-बालक उनके लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे है।
इस प्रकार वैकुंठ  से भी श्रेष्ठ यह वृन्दावन धाम इनके चरण-चिन्हों  से अधिक रमणीय बना है। "

शुकदेवजी का ह्रदय गंगाजल जैसा शुध्ध  है। जल स्थिर और स्वछ हो तो उसमे शुध्ध  प्रतिबिम्ब पड़ता है। शुकदेवजी ने श्लोक सुने। श्रीकृष्ण का स्वरुप मनोहर लगा।
श्लोक बोलते है ऋषिकुमार और उसका स्वरुप दीखता है शुकदेवजी के ह्रदय में।
शुकदेवजी को ध्यान में अति आनंद आता है।
पर,उन्होंने तुरंत निश्चय किया कि निराकार ब्रह्म का चिंतन नहीं करेंगे। अब सगुण  साकार का चिन्तन  करेंगे। फिर सोचा कि सगुण  ब्रह्म की सेवा में सब वस्तुओं  की अपेक्षा रहती है।

"कन्हैया तो मिस्री-मक्खन  मांगेगा। मै ये कहाँ  से लाऊँगा?मेरे पास तो कुछ नहीं है।
मै निर्गुण ब्रह्म का उपासक हूँ। मैने तो लंगोट का भी त्याग कर दिया है। "
शुकदेवजी के मन में दुविधा उत्पन्न हुई। " निराकार या सगुण  ब्रह्म किसका चिन्तन  करू?"
इस प्रकार विचार ही कर रहे थे कि वहाँ  व्यासजी के शिष्यों ने दूसरे श्लोक का गान शुरू किया।
वह श्लोक का अर्थ ऐसा है कि -

"अहो?आश्चर्य है कि दुष्ट पूतना ने स्तनों में विष भरकर जिनको मारने की इच्छा से दुग्धपान कराया था,
उस पूतना को भी उन्होंने ऐसी गति दी,जो उसे किसी धाय को देनी चाहिए थी अर्थात उसे सद्गति दी।
भगवान श्रीकृष्ण के सिवा ऐसा कौन दूसरा दयालु है कि जिसकी शरण ग्रहण करे?
वासना का विष मन में रखकर मनुष्य परमात्मा के सन्मुख जाता है,उसे परमात्मा के दर्शन नहीं होते।
पदार्थ से प्रसन्न हो वह जीव और प्रेम से प्रसन्न हो वह ईश्वर। प्रेम करने योग्य एक परमात्मा ही है।
ऐसे परम कृपालु को छोड़ मै किसकी शरण में जाऊॅ। "

शुकदेवजी के मन में शंका थी कि "कन्हैया सब मांगेगा,तो मै क्या दूंगा?" उस शंका का  निवारण हुआ।
वे इधर-उधर देखने लगे कि श्लोक कौन बोल रहा है। वहाँ  उन्हें व्यासजी के शिष्यों के दर्शन हुए।
शुकदेवजी ने उनसे पूछा कि  "आप कौन है?आप जो श्लोक बोल रहे थे वे किसके रचे हुए है ?"
शिष्यों ने कहा कि  हम व्यासजी के  शिष्य है। व्यासजी ने हमे ये मंत्र दिए है। ये दो श्लोक तो उदहारण है। व्यासजी ने ऐसे अठारह हजार -श्लोकोमय भागवत की रचना की है।
शुकदेवजी को भागवतशास्त्र पढ़ने की इच्छा हुई। कन्हैया की लीला सुनकर उनका चित्त आकर्षित हुआ है।

योगियों का मन भी कृष्ण-कथा से आकर्षित हुआ है।
निर्गुण ब्रह्म के उपासक-शुकदेवजी - सगुण  ब्रह्म (कन्हैया )के पीछे पागल हो रहे है।



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