Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-67

 


द्रौपदी दया का स्वरुप है।
“दयारूप”द्रौपदी के साथ जब तक ह्रदय शादी न करे तब तक श्रीकृष्ण सारथि नहीं बनते।
अर्जुन जीवात्मा और स्वामी -श्रीकृष्ण हृषिकेश है। यह जोड़ी तो इस शरीररूपी रथ में बैठ है।
हृदयरूपी घोड़ो का रथ प्रभु को सौपोंगे तो कल्याण होगा।
इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण है-इसीलिए उनको ”हृषिकेश” कहा है.

युधिष्ठिर यही धर्म है,भीम यही बल है। सहदेव-नकुल बुध्धि  और ज्ञान है।
इन चार गुणोंवाला जीव यह अर्जुन है।
ये गुण  कब शोभायमान होते है ? जब द्रौपदी दया उनकी पत्नी  बनती है,
जीव दया द्रौपदी के साथ विवाह करता है तभी।
द्रौपदी कब कैसे मिले?जब धर्म को बड़ा माने  तभी।
और तभी ही -परमात्मा सारथि भी बनता है और उसी का होता है।

आज तो लोग धर्म को बड़ा नहीं मानते है। धन को बड़ा मानते  है,उसी कारण सयंम और सदाचार जीवन से निकल गए है। मानव जीवन में धन मुख्य नहीं है,धर्म मुख्य  है।
धन धर्म की मर्यादा में रहकर ही प्राप्त करना चाहिए।
आपको कोई कार्य करना हो तो पहले धर्म से पूछो कि यह कर्म करने से मुझे पाप तो नहीं लगेगा?
आप अर्जुन जैसा जीवन गुजारोगे तो भगवान आपका सारथि बनेगा।

द्रौपदी ने अश्वत्थामा को बचाया और अर्जुन को कहा कि -
उनको मार भी दोगे तो भी मेरे पाँच पुत्रों  में से एक भी वापस नहीं आएगा।
परन्तु अश्वत्थामा को मारने से उनकी माता गौतमी को अति दुःख होगा। मै अभी सधवा हूँ।
अश्वत्थामा की माँ विधवा है। वह पति की मृत्यु के बाद पुत्र के आश्वासन पर जीती है।
वह जब रोएगी  तो मै नहीं देख सकूंगी।किसी  का आशीर्वाद नहीं ले तो कुछ नहीं, मगर किसी की ठण्डी  सांस  नहीं लेना। कोई ठंडी सांस  दे ऐसा कोई कर्म नहीं करना चहिये।

भीम अर्जुन से कहते है कि ऐसे बाल हत्यारे पर भी दया होती है क्या?तुम्हारी प्रतिज्ञा कहा गई?
द्रौपदी बार-बार कहती है इसे मारना नहीं। सब सोच में पड़  गए।
श्रीकृष्ण ने आज्ञा दी कि द्रौपदी जो कह रही है वह ठीक है। उसके दिल में दया है।
भीम कहते है कि मनस्मृति में कहा है आततायी को-अश्वत्थामा को मारने मे पाप नहीं।

श्रीकृष्ण भी मनस्मृति को मान्य रखकर उत्तर देते है कि -
ब्राह्मण का अपमान यही उसकी मृत्यु के बराबर है। अतः अश्वत्थामा को मारने की जरुरत नहीं है।
उसका अपमान करके निकाल दो। अश्वत्थामा का मस्तक नहीं काटो पर उसके माथे में
जन्मसिध्द मणि है वह निकाल दो। अश्वत्थामा तेजहीन  हो  जाएंगे।  

अब भीमसेन ने भी सोचा कि अब उसको मारने  से क्या बाकी रहा है?अपमान तो मरण से भी विशेष है।
अपमान प्रतिक्षण मारने के बराबर है।
फिर,अश्वत्थामा का मस्तक परसे  उसके माथे में से जन्मसिध्द मणि था,उसको निकाल दिया ।
अश्वत्थामा तेजहीन  हो  गये ।  
अश्वत्थामा सोचते है कि इससे तो मुझे मार दिया होता तो अच्छा था।


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