Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-70



कुंती भगवान की स्तुति करती है-
"बिना जल के नदी की शोभा नहीं है,प्राण के बिना शरीर नहीं शोभा देता,
कुमकुम का टिका न हो तो सौभाग्यवती स्त्री नहीं सुहाती।
इसी प्रकार पांडव भी आपके बिना नहीं सुहाते। नाथ,आपसे ही हम सुखी है। "

गोपी गीत में गोपियाँ  भी भगवान के उपकार का स्मरण करती है।
गोपियाँ कहती है -"विषजलाप्ययाद्  ब्यालराक्षसाद वर्षमारुताद् वैद्युतनलात्। "
"यमुनाजी के विषमय जल से होने वाली मृत्यु से  रूप में खा जानेवाले अध्यासुर से,इंद्र की वर्षा,
आँधी ,बिजली,दावानल आदि से हमारी रक्षा की है। "

कुन्तीजी  प्रभु के उपकार याद करती है -कि -
"जब भीम को दुर्योधन ने विष-मिश्रित लड्डु  खिलाये थे,उस समय भी आपने रक्षा की थी।
लाक्षाग्रह से भी हमे बचाया। आपके उपकार अनंत है। उसका बदला हम कभी नहीं चुका  सकते।
मेरी द्रौपदी को दुशासन सभा में खींच लाया और उसकी साड़ी  खीचने लगा तब भी  आपने लाज रखी।
आपके उपकार का बदला मै किस तरह चुकाऊँगी? मै आपको बार-बार वन्दन  करती हूँ। "

कुन्तीजी श्रीकृष्ण से कहती है -कि-
"नाथ हमारा त्याग न करो। आप द्वारिका जा रहे है,
किन्तु एक वरदान माँगने  की मेरी इच्छा है। वरदान देकर आप चले जाइये। "

कुन्ती ने जो माँगा है वैसा दुनिया में किसी ने नहीं माँगा और मांगेगा भी नहीं।
“हे जगतगुरु,हमारे जीवन में प्रतिक्षण विपदा आती रहे,क्योकि विपदावस्था में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन होते रहते है और आपके होने पर जन्म-मृत्यु के फेरे टल जाते है।”

दुःख में ही मनुष्य को सयानापन आता है। दुःख में ही प्रभु के पास जाने का मन होता है।
विपत्ति में उनका स्मरण होता है। सो विपत्ति ही सच्ची सम्पति है।

कुंती मांगती है कि- "बड़ी भरी विपत्तियाँ आती रहे ऐसा वरदान दीजिये। "
श्रीकृष्ण कहते है कि- "यह क्या मांगती हो तुम?आपकी बुध्धि चक्रा  तो नहीं गई है?
आज तक बहुत दुःख आये  है। अब  सुख की बारी आई है। तो अब क्या दुखी होने की इच्छा है?"

कुन्ती  दीन  बनती है। कहती है कि-"नाथ,मै जो मांग रही हूँ  वह ठीक है। दुःख ही मेरा गुरु है।
दुःख से ही जीव को परमात्मा  के चरणो में जाने की इच्छा होती है। "
जिस दुःख में नारायण का स्मरण हो वह तो सुख है,उसे दुःख कैसे कहे?
विपत्ति में आपका स्मरण होता है सो उसे मै सम्पति मानती हूँ। "

"सुख के माथे सिल परो। हरि  ह्रदय से जाये।
बलिहारी व दुःख की जो पल पल नाम जपाय। "
हनुमानजी ने रामचन्द्रजी से कहा था कि -
आपके ध्यान में सीताजी तन्मय है इसी से मै कहता हूँ  कि  सीताजी आनन्द  में है।

"कह हनुमन्त  विपत्ति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई "
"नाथ,आपका स्मरण-भजन न हो सके वही सच्ची विपत्ति है ऐसा समझो।

मेरे सिर पर विपत्तियाँ आये कि जिससे आपके चरणों  का आश्रय लेने की भावना जागे। "


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