इसी कारण से तो मै आपसे मिलने के लिए आया हूँ ,आपने स्वयं कोई पाप नहीं किया।
फिर भी आपने अपनी आँखों से पाप होता हुआ देखा है। आपने जो पाप देखा उसी की यह सजा है।
कोई पाप करे उसे देखना भी पाप है। किसी के पाप का विचार करना भी पाप है।
किसी का पाप देखना नहीं,सुनना भी नहीं और किसी से कहना भी नहीं।
कृष्ण कहते है कि - दादाजी आप भूल गए होंगे किन्तु मे तो नहीं भूला। मुझे तो सब कुछ याद रखना ही पड़ता है। याद करे दादाजी कि एक बार आप जब सभा में बैठे थे वहाँ दुशासन द्रौपदी को ले आया था।
द्रौपदी ने कहा था कि -ध्युत (जूआ) में सब कुछ हारा हुआ पति अपनी पत्नी को दांव पर लगा नहीं सकता।
फिर भी दुर्योधन कहा था कि-अब द्रौपदी दासी बनी है,उसे निर्वस्त्र करो।
उस समय द्रौपदी ने आप से कहा था कि -हारे हुए पति को अपनी स्त्री दाँव पर लगाने का अधिकार नहीं है। दादाजी आप न्याय करे कि मै जीता हूँ या अजिता?
उस समय आपने कहा था कि- दुर्योधन का अन्न ग्रहण करने से मेरी बुद्धि कुंठित हो गई है और आप चुप रहे। ऐसा घोर पाप सभा में हो रहा हो और आप उसे देखते रहे यह आप जैसे ज्ञानी को शोभा नहीं देता। द्रौपदी का अपमान आप सभाग्रह में देखते रहे। आपने उस समय द्विधावश होकर अन्याय को रोका नहीं। द्रौपदी की पुकार सुनकर,मैं वहाँ गुप्त रूप से आया था। मैने सब कुछ देखा। इसी पाप का आपको यह दंड मिल रहा है।
भीष्म ने नमन किया। उन्होंने फिर धर्मराजा को धर्म का उपदेश दिया।
स्व-धर्म,परा धर्म,स्त्रीधर्म,आपद्धर्म,राजधर्म,मोक्षधर्म आदि समस्याओं का महाभारत के शान्ति-पर्व में बोध है
युधिष्ठिर ने पूछा कि-सब धर्मों में कौन से धर्म को आप श्रेष्ठ मानते है?
किसका जप करने से जीव जन्म-मरण रूपी सांसारिक बंधन से मुक्त होता है?
भीष्मपितामह ने कहा -स्व-धर्म श्रेष्ठ है। स्थावर-जंगम रूप संसार के स्वामी,ब्रह्मादि देवो के देव,देशकाल और वस्तु से अपरिच्छिन्न,क्षर-अक्षर से श्रेष्ठ पुरषोत्तम के सहस्त्र-नामो का (विष्णु-सहस्त्र-नाम का)
निरंतर तत्परता से गुण -संकीर्तन करने से मनुष्य दुःखो से और बंधन से मुक्त होता है।
इसीलिए कहते है कि-,शिवमहिम्न और विष्णु-सहस्त्रनाम का रोज पाठ करो।
शिवजी की स्तुति करने से ज्ञान मिलता है। ज्ञान से भक्ति दृढ होती है।
विष्णु भगवान की स्तुति करने से पाप जल जाते है। विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने से ललाट पर लिखे हुए विधाता के लेख भी बदल जाते है। जन्म-मरण के बंधन से जीव को वह मुक्त करता है।
शंकराचार्य को विष्णुसहस्त्र-नाम का पठन बहुत प्रिय था। उन्होंने सबसे पहले विष्णुसहस्त्रनाम पर ही भाष्य लिखा है। उनका अंतिम ग्रन्थ है "ब्रह्मसूत्र" का भाष्य-शांकर भाष्य। और फिर उन्होंने कलम छोड़ दी।
विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ रोज करो। बारह वर्ष तक करने से अवश्य फल मिलेगा। विष्णुसहस्त्रनाम का पंद्रह हजार पाठ करे तो उसे एक विष्णुयाग का पुण्य मिलता है।
बारह वर्ष तक नियमपूर्वक सत्कर्म करो। फिर अनुभव होगा।
फिर भीष्मपितामह ने भगवान की स्तुति कि-और बोले कि -
"हे नाथ,आपका दर्शन मै खाली हाथों से कैसे करू? मै आपको क्या अर्पण करू?"
भगवान जीव से धन-सम्पति नहीं मांगते। वे तो मन-बुध्धि ही मांगते है।
भीष्मपितामह ने कहा कि -"मै अपना मन और बुध्धि आपके चरणों में अर्पण करता हूँ। "