Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-75



यह जीव बड़ा कपटी है। कोई संकट आये तो रणछोड़जी के दर्शन करने जाता है।
वहाँ  ग्यारह रूपये भेट देता है और कहता है कि -
"हे नाथ,मैने अदालत में अपने भाई पर दावा दायर किया है। मेरा ध्यान रखना।"
ध्यान रखने से उसका मतलब कि  अदालत में साथ जाना। वह वकील को तो ३००  रूपये देगा और
ठाकुरजी को ११ रूपये में ही समझा देना चाहता है।

भगवान कहते है कि  -मै तो सब कुछ देखता,जानता और समझता हूँ। मै  तो तुम्हारे दादा का भी दादा हूँ। लक्ष्मीजी जब भगवान से पूछती है कि- आप अपने भक्तों  को दर्शन क्यों नहीं देते है?
तब भगवान कहते है कि - वह देते है, बदले में क्या लेना चाहते है वह भी तो देखो।?
इसीलिए कहते है कि-भगवान को तुम अपना मन,अपनी बुध्धि अपना ह्रदय अर्पित करो।

भीष्मपितामह स्तुति करते है कि -हे भगवन,केवल एकबार मुझसे कहो कि मे तुम्हारा हूँ।
भक्ति ही मृत्यु सुधारती है। भीष्मपितामह ज्ञान पर भरोसा नहीं रखते थे। वे भगवान के शरण में गए।
और कहा कि- "मै  आपके शरण में आया हूँ।"  वे ऐसा नहीं कहते कि  -वे  तो खुद  ब्रह्मरूप  ही है।
भगवान कहते है कि -मै  आपको अपना कैसे मानू। आपने तो अर्जुन पर भी बाण चलाये है।
अपने पौते पर चलाये गए बाणो को मै कैसे भूलू ?

भीष्म कहते है कि  -यह सारा जग जानता है कि  पांडवो पर मेरा कितना प्रेम है। और आप भी तो यह जानते है। युध्ध  में मेरा शरीर कौरवों  के पक्ष में था किन्तु मेरा मन तो पांडवो का पक्ष में ही था। पांडवो पर मै  बाण  चलाता  था पर मन से मै  यही चाहता था कि  विजय पांडवो को ही मिले।
"जयोस्तु पाण्डुपुत्राणाम् " ऐसा बोलकर हे मै  बाण छोड़ता  था।

कृष्ण कहते है कि फिर भी आप शरीर से तो पांडवो के पक्ष में नहीं थे। आपने कौरवों के पक्ष में रहकर मेरे पांडवो के साथ युध्ध किया है। आप जब मन से पांडवो के साथ थे तो फिर तन से भी पांडवो के साथ क्यों नहीं रहे?

भीष्मपितामह कहते है कि -हे प्रभो,मै  उस समय आपके दर्शन करना चाहता था। आप अर्जुन के रथ पर थे।
मैने सोचा कि  यदि मै पांडवो के पक्ष में रहूँगा तो सामने से आपके दर्शन कैसे कर सकूंगा? आपके सतत दर्शन  करते रहने के लिए ही मै पांडवो के विरुध्ध कौरवों  के पक्ष में जा मिला।
पांडवो के पक्ष से लड़ता तो आपके दर्शन मै  अच्छी तरह नहीं कर पाता।

भीष्म स्तुति करते है-
"जिसका शरीर त्रिभुवनसुन्दर और नीलकमल जैसा है,नीलवर्ण है,जिसके तन पर सूर्यकिरण-सा श्रेष्ठ  पीताम्बर शोभित है और मुख पर कमल के सामान उलझी हुई लटे बिखरी हुई है,ऐसे अर्जुनसखा में मेरी निष्कपट प्रीति हो।
हे नाथ,जगत में आपने मेरी प्रतिष्ठा कितनी बढ़ा दी?मुझे किता सम्मान दिया। मेरी प्रतिज्ञा रखने के लिए आपने अपनी प्रतिज्ञा छोड़ दी। "

श्रीकृष्ण ने महाभारत के युध्ध  में कोई अस्त्र-शस्त्र  धारण न करने की प्रतिज्ञा की थी।
भीष्म ने कहा कि  मै  गंगापुत्र हूँ,मै तो ऐसा युध्ध  करूँगा कि  कृष्णा को अस्त्र-शस्त्र  धारण करने ही पड़ेंगे।
मै  उनसे हथियार चलवाकर ही रहूँगा। भीष्म के बाणो  से अर्जुन मूर्छित हो गया फिर भी वे बाण  -वर्षा करते रहे। कृष्णा ने सोचा की यदि भीष्म बाण  चलते रहेंगे तो मेरे अर्जुन की मृत्यु हो जाएगी महा अनर्थ होगा।
मेरी प्रतिज्ञा चाहे टूट जाये,तो भले ही टूट जाए.
भगवान रथ से कूद पड़े। सिंह की भांति दहाड़ते हुए वे रथ-चक्र लेकर भीष्म की ओर  दौड़े।
भीष्म ने उसी समय कृष्ण  नमस्कार किया और भगवान का जयजयकार किया।
भक्तों की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए भगवान अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ देते है। भगवान भक्तो का पूरा-पूरा
सम्मान करते है। वे मानते है कि चाहे मेरी पराजय हो,पर भक्तो की विजय होनी ही चाहिए।


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