Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-76



भीष्म कहते है कि मेरी और कृष्ण दोनों की प्रतिज्ञा पूरी हुई। उस समय भगवान के दो रूप मै  देख रहा था।
एक स्वरुप रथ पर विराजित था और दूसरा रथ से कूदकर चक्र लेकर दौड़ रहे थे।

भीष्म का अर्थ है मन। अर्जुन जीवात्मा है। मन आवेशयुक्त होने पर संकल्प-विकल्प बहुत करता है।
मन ही संकल्प-विकल्प के बाणो  की बौछार करता है।
अतः जीवरूपी अर्जुन घायल होता है और मूर्छित हो जाता है।
भगवान मन को सुदर्शन चक्र से मारने जाते है तब कही मन शान्त  होता है।

जीवात्मा जब परमात्मा की शरण में जाता है तो मन को वे शान्त  करते है। मन संकल्प-विकल्प करना
छोड़ दे तो यह मन आत्मरूप में तदाकार हो जाता है। तभी जीवन में शान्ति मिलती है।

जो स्तुति भीष्म ने की थी वह अनुपम है। वह स्तुति कंठस्थ करने  योग्य है।
इसे "भीष्मस्तवराजस्तोत्र"  भी कहते है। इसके बाद भीष्म ने उत्तरायण में देह को छोड़ दिया।
भीष्माचार्य भगवत स्वरुप में तदाकार हो गए। वे कृताथ हो गए।

भीष्म महाज्ञानी थे फिर भी प्रभु -प्रेम में तन्मय होकर मरे थे। यह बात हमे बतलाती है कि  भक्ति श्रेष्ठ  है।
साधन-भक्ति करते-करते ही साध्य-भक्ति सिध्ध  होती है। जिसकी मृत्यु के समय देवगण बाजे  बजे बजाते है उसकी मृत्यु ही कृतार्थ हुई जानो। भीष्म के प्रयाण के समय देवों  ने ऐसा ही किया था।

मानव जीवन की अन्तिम  परीक्षा उसकी मृत्यु ही है। जिसका जीवन सुन्दर होगा उसकी मृत्य मंगलमय होगी।
मरण तब सुधरता है जब मानव प्रत्येक क्षण को सुधारता हुआ चलता है और
जिसको समय के मूल्य का भान है। प्रत्येक क्षण का जो सदुपयोग करेगा उसी की मृत्यु मांगलिक होगी।
कण-कण और क्षण-क्षण को उपयोग करो। कण को जो दुरूपयोग करता है वह दरिद्र बनता है
और क्षण को व्यर्थ खर्च करने वाला जीवन बिगाड़ता  है।

प्रतिदिन सयंम को बढ़ाओ।
प्रतिपल जो ईश्वर का स्मरण करता है उसकी मृत्यु सुधरती है।
भीष्म आजीवन सयंमी रहे थे। संयम  बढाकर प्रभु के सतत स्मरण की आदत होने से मरण सुधरेगा।
ईश्वर तब तक कृपा नहीं करते जब तक मनुष्य स्वयं कोई प्रयत्न न करे। सारा जीवन भगवान के स्मरण में बीते और कदाचित वह व्यक्ति अंतकाल में भगवान को भूल जाये तो भी भगवान उसे याद करेंगे।
सत्कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता।

भीष्मपितामह की मृत्यु को उजागर करने के लिए द्वारकाधीश पधारे थे। भीष्मपितामह ने महाज्ञान का विश्वास न किया और उन्होंने प्रभु की शरण ली।
भीष्मपितामह की मृत्यु से युधिष्ठिर को दुःख तो हुआ किन्तु उनकी सद्गति से उनको आनन्द भी हुआ।
धर्मराज  राजसिहांसन पर बैठे। हस्तिनापुर का शासन करने लगे। उनके राज्य में अकाल नहीं था।
न तो अतिवृष्टि होती है और न अनावृष्टि। धर्मराज के राज्य में न तो कोई भूखा है और न कोई बीमार।

धर्म की मर्यादा का पालन करने वाला कभी भी दुःखी  या बीमार नहीं होता। धर्मराज के राज्य में धर्म की भी शिक्षा दी जाती थी। उस समय राजा धर्मनिष्ठ  होने के कारण प्रजा भी धर्मनिष्ठ  थी।


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