Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-79



धर्मराज तथा भीमसेन ऐसे -कलियुगकी  बाते कर रहे थे इतने में अर्जुन भी  द्वारिकासे  वापस  आये.   
उसके मुख पर तेज का आभासमात्र भी नहीं दीखता था। युधिष्ठिर ने उससे पूछा कि-तेरा तेज कहाँ  गया?

अर्जुन ने कहा-क्या बताऊ भाई? प्रभु ने मेरा त्याग किया है। जिन्होंने लाक्षाग्रह में हमारी रक्षा की थी,
वे अब तो स्वधाम पधारे है। प्रभु मुझे अंतकाल में साथ नहीं ले गए। उन्होंने मुझसे कहा कि-
" तू जब मेरे साथ आया ही नहीं था तो फिर मे तुझे अपने साथ कैसे ले जा सकता हूँ ?
मैंने तुझे गीताशास्त्र का जो ज्ञान दिया है वही  तेरी रक्षा करेगा। "

बड़े भैया,आज तक मे भी कभी हारा  नहीं था। किन्तु कृष्ण विरह से व्याकुल हुआ आज द्वारिका से लौट रहा था तो रास्ते में काबा लोगों  ने मुझे लूट लिया। मुझे लगता है कि मुझमे जो शक्ति थी वह मेरी नहीं थी किन्तु द्वारिकाधीश की ही थी,और उनके चले जाने से वह शक्ति भी चली गई  है। मुझे प्रभु के उन अनंत उपकारों की याद  आ रही है। कई  संकटावस्था में उन्होंने हमारी रक्षा की थी।

कृष्ण कृपा को याद करते- करते अर्जुन कृष्णविरह में रो रहा है।

धर्मराज से अर्जुन कह रहा है कि -द्रुपदराजा की राजसभा में मैंने जो मत्स्यवेध किया था, वह भगवान की शक्ति के बल पर ही किया था। प्रभु ने मात्र आँख से ही शक्ति प्रदान की थी। किरातवध के समय मै  शंकर के साथ युध्ध  कर सका वह भी श्रीकृष्ण के प्रताप से। द्रौपदी से भी उन्हें कितना स्नेह था? द्रौपदी के चीरहरण के समय-जब हम सब निःसहाय थे -उस समय उन्होंने अदृश्य रूप में द्रौपदी के चिर पूरे थे।
दुर्योधन ने कपट करके हमारे नाश के लिए दुर्वाशा के साथ दस हजार ब्राह्मण भेजे थे। तब अक्षयपात्र में बचे भाजी के एक पत्ते का प्राशन प्रभु ने  किया और सब ब्राह्मणो को तृप्त किया। इसप्रकार दुर्वाशा के शाप और संकट से हमे बचाया था।

दुर्वाशा की कथा कुछ इस प्रकार है-
दस हजार ब्राह्मण को जो भोजन कराये  -उसके घर भोजन लेने का- ऐसा दुर्वासा का नियम था।
दुर्योधन ने चार महीनों  तक दुर्वासा को अपने यहाँ भोजन कराया। उन्होंने दुर्योधन से वर मांगने को कहा। दुर्योधन ने सोचा कि - दुर्वाशा के शाप से पांडवो का नाश करने का यह अच्छा अवसर है।
कल इस ऋषि का एकादशी का अनशन है। दुर्वासा को पांडवो के पास -क्यों न भेजा जाय?
वैसे तो सूर्यदेव का अक्षयपात्र पांडवो के पास है,किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने के बाद -वह कुछ भी नहीं देता,
यदि,दुर्वासा को द्रौपदी के भोजन के बाद वहां भेजा जाय,और जब वे,वहाँ  पहुचेंगे और
द्रौपदी से भोजन न मिलने पर क्रोधित होंगे और पांडवों  को शाप देंगे,जिससे पांडवों  की दुर्गति होगी।

दुर्योधन ने ऐसा कुविचार करके दुर्वासा से विनती की। "आप अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर युधिष्ठिर का आतिथ्य स्वीकार करे क्योंकि अपने परिवार के वही गुरुजन है। और हाँ ,द्रौपदी बिचारी भूखी न रह जाये
ईसलिए पांडवो के भोजन कर लेने के बाद ही वहाँ  आप जाइयेगा। "

संत की सेवा सद्भावसे करेंगे तो फलीभूत होगी किन्तु  दुर्भाव से करेंगे तो सफल नहीं होगी।

चार मास तक दुर्वासा को अपने यहाँ भोजन कराकर दुर्योधन ने पांडवों के सर्वनाश की इच्छा की।
इसी दुर्भावना के कारण उसकी अपनी ही हानि हुई।

दुर्योधनने संत की सेवा तो की किन्तु किसी के सर्वनाश के हेतु से की थी सो उसे पुण्य मिला  नहीं ।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE