दुर्वासा ने युधिष्ठिरसे कहा- राजन! कल एकादशी का अनशन था सो आज बड़ी भूख लगी है।
आपके घर हम भोजन करने की इच्छा से आये है।
सूर्यनारायण द्वारा दिए गए अक्षयपात्र से पांडव मध्यान्हकाल में आये हुए ब्राह्मणों को भोजन कराते है। अक्षयपात्र संकल्पानुसार भोजन देता है।
आज द्रौपदी भोजन कर चुकी है सो अक्षयपात्र से कुछ भी मिलने की सम्भावना नहीं है।
फिर भी युधिष्ठिर ने दुर्वासा से कहा कि - बड़ी कृपा हुई हम पर कि आपने हमारा आँगन पावन किया।
आप सब गंगास्नान कर ले इतने में भोजन तैयार कर देंगे।
धर्मराज का धैर्य तो देखो कि घर में अन्न का एक कण भी नहीं है फिर भी उन्होंने ने दस हज़ार ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण किया।
युधिष्ठिर को विश्वास है कि मैंने आज तक कभी अपने धर्म की उपेक्षा नहीं की है। इससे धर्मस्वरूप प्रभु मेरी अवश्य रक्षा करेंगे। भीम,अर्जुन,द्रौपदी आदि चिंता कर रहे है कि इन सबको भोजन कैसे कराएंगे।
द्रौपदी भी सोचती है कि अब अक्षयपात्र भी काम नहीं आ सकता क्योकि मैंने भोजन कर लिया है।
द्रौपदी ने दुःख से कातर होकर प्रभु को पुकारा।
परमात्मा ने द्रौपदी की आर्तवाणी सुनी तो उसकी सहायता करने के लिए आने को तैयार हो गए।
द्वािरकनाथ दौड़ते हुए द्रौपदीकी उस कुटियामें आये। जहाँ द्रौपदी बड़ी तन्मयता से प्रार्थना कर रही थी।
भगवान ने कहा कि -देख मै आ गया हूँ मुझे बड़ी भूख लगी है। कुछ खाने को दे।
द्रौपदी ने हाथ जोड़कर कहा कि- घर में कुछ भी नहीं है। दस हज़ार संतों को भोजन करना है,इसलिए तो
आपको पुकारा है। आप उसकी व्यवस्था करके हमारी लाज रखे तो बड़ी कृपा होगी।
भगवान कहते है कि - उन संतो के भोजन का प्रबन्ध तो बाद में होता रहेगा किन्तु पहले मेरे खाने की
तो कुछ बात कर। तू अपने भोजन से पहले मेरे लिए हमेशा कुछ न कुछ रख लेती है
तो आज भी तूने रख छोड़ा हो वह मुझे दे।
द्रौपदी कहती है कि -नाथ,आज तो भूल ही गई थी,सो आपके लिए भी कुछ नहीं रहा है।
भगवान ने कहा कि -अपना अक्षयपात्र मुझे दिखाओ। शायद मेरे लिए उसमे कुछ हो।
द्रौपदी ने प्रभु के हाथ में अक्षयपात्र रख दिया। उन्होंने देखा तो सब्जी का एक पत्ता उसमे रह गया था।
वैसे तो अक्षयपात्र में वह पत्ता कहाँ से आ सकता था?किन्तु भगवान ने प्रेम योग से पत्ता उत्पन्न कर लिया। उन्होंने उस पत्ते का प्राशन किया।
भगवान द्रौपदी से कहते है कि -आज -अभी जगत के सभी जीव तृप्त हो गए।
और-भगवान,दुर्वासा और अन्य दस हज़ार संत सभी तृप्त हो गए।
युधिष्ठिर ने भीम को ब्राह्मणों को बुलाने की आज्ञा दी। भीम संतो को बुलाने गया तो -
वहाँ वे तृप्ति की डकार ले रहे थे। वे भोजन करने के लिये आने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
दुर्वासा ने सोचा कि यह काम कृष्ण का ही हो सकता है। उन्होंने भीम से पूछा कि -
द्वारिका से कृष्ण तो नहीं आये है न। भीम ने कहा कि वह तो कभीसे आये है और द्रौपदी से बातचीत
कर रहे है। वे तो कहते है कि- दुर्वासा तो मेरे गुरु है सो मै आज उनको प्रेम से भोजन कराना चाहता हूँ।