Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-81



दुर्वासा ने कहा कि कृष्ण मेरे गुरु के भी गुरु है। मै  उनका गुरु नहीं हूँ।
अब मुझे भोजन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा सयंम,सदाचार,धर्मपालन,कृष्णभक्ति,
कृष्णप्रेम देखकर मुझे बिना भोजन किये ही तृप्ति हो गई है।
दुर्वासा ने आशीर्वाद दिया कि- तुम्हारी(पांडवों )  विजय होगी और कौरवों  का विनाश होगा।

शंकरस्वामी  कहते है कि- यदि जीव और ब्रह्म एक न हो तो श्रीकृष्ण पत्तो का  प्राशन करे और दुर्वासा तृप्त हो,ऐसा कैसे हो सकता है? जीव और ईश्वर का भेद आभासमात्र है , तत्त्व तो  सब एक ही है।

भगवान के स्वधामगमन और यदुवंश के विनाश का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया। परीक्षित को राजसिंहासन दे दिया। पांडवो ने द्रौपदी को साथ लेकर स्वर्गारोहण के लिए हिमालय की दिशा में प्रयाण किया। केदारनाथ में उन्होंने भगवान शिवजी की पूजा की। जीव और शिव का मिलन  हुआ। उसके आगे निर्वाण पंथ हैं। पांडवों  ने वही रास्ता लिया।

चलते-चलते सबसे पहले द्रौपदी का पतन हुआ क्योकि वैसे तो वह भी पतिव्रता थी,किन्तु अर्जुन के प्रति उसे अधिक प्रेम था,सो वह उसकी ओर पक्षपात का भाव रखती थी।

दूसरा पतन सहदेव का हुआ क्योंकि उसे अपने ज्ञान का अभिमान था। तीसरा पतन हुआ नकुल का क्योंकि
उसे अपने रूप का अभिमान था। फिर पतन हुआ अर्जुन का। उसे अपने बल का अभिमान था।
फिर पतन हुआ भीम का। उसने धर्मराज से पूछा कि  मेरा पतन क्यों हुआ?मैंने तो कभी पाप किया ही नहीं था।
युधिष्ठिर ने कहा कि खाता  बहुत था सो तेरा पतन हुआ।

धर्मराज अकेले आगे बढ़ने लगे। धर्मराज की परीक्षा करने के लिए यमराज ने कुत्ते का रूप लेकर उनके पास आये। उन्होंने दूसरा भी रूप  लिया और युधिष्ठिर से कहा कि मै  तुम्हे स्वर्ग में ले जाऊँगा  किन्तु तुम्हारे पीछे-पीछे जो कुत्ता चला आ रहा है उसे स्वर्ग में प्रवेश न मिलेगा। तो युधिष्ठिर ने कहा कि जो मेरे साथ-साथ चला आया है उसे कैसे अकेला छोड़ दू। उसे छोड़कर मे स्वर्ग में नहीं आ सकता। धर्मराज सदेह स्वर्ग गये।

कलियुग में मीराबाई और तुकाराम जैसे भक्त सदेह स्वर्ग में गए है।
तुकाराम -"प्रामही  जातो प्रामुच्या  गाँवा -आमचा राम-राम ध्यावा " ऐसा कहते हुए सदेह स्वर्ग में गये।

मीराबाई भी सदेह स्वर्ग में गयी थी। वे द्वारकाधीश में सदेह समां गयी थी,लीन हो गयी थी।
मेवाड़ में उन्हें बहुत कष्ट मिला था,सो उन्होंने मेवाड़ छोड़ दिया। उनके जाने के बाद मेवाड़ बहुत दुःखी  हुआ। वहाँ  यवनों  का आक्रमण हुआ।राणाजी ने सोचा कि मीरा फिर मेवाड़ आये तो देश सुखी हो।
राणाजी ने ब्राह्मणों  को और भक्तो को मीरा को बुलाने के लिए भेजा। मीरा ने उनसे कहा कि -
कल यदि मेरे द्वारकानाथ की आज्ञा मिलेगी तो मै  आपके साथ आउंगी।

दूसरे दिन मीरा ने दिव्य श्रृंगार किया।
वे आतुर थी कि आज उन्हें अपने गिरिधर गोपाल से,अपने प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण से मिलना है।
"मै इस संसार में अब रहना नहीं चाहती। कृपा करो मेरे नाथ!" मीरा कीर्तन करती है,
कीर्तन के साथ-साथ वह  नर्तन करने लगी। आज उनका अंतिम कीर्तन था।
द्वारकानाथ ने उनको अपने ह्रदय से लगा लिया। मीरा सदेह द्वारकाधीश में विलीन हो गयी।

कृष्ण भक्ति से उनका शरीर इतना दिव्य  हुआ था की वह सशरीर कृष्ण में विलीन हो गई।


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