शायद स्वागत न करने का नाटक कर रहे है। राजा की बुध्धि में कलि ने प्रवेश किया था।
अतः शमीक ऋषि की सेवा करने की अपेक्षा राजा ऋषि से सेवा की अपेक्षा कर रहे है। उन्हें दुर्बुध्धि ने आ घेरा। उन्होंने एक मरा हुआ सांप शमीक ऋषि के गले में पहना दिया। ऐसे उन्होंने तपस्वी का अपमान किया।
अन्य को अपमानित करने वाला स्वयं अपना ही अपमान करता है।
अन्य को छलने वाला खुद अपने को छलता है। क्योकि सभी में आत्मा तो एक ही है।
राजा ने शमीक ऋषि को गले में मरा हुआ सांप पहनाया,
किन्तु ऐसा करके उन्होंने अपने गले में ही मानो जीवित सांप पहन लिया। सर्प काल का स्वरुप है।
सभी इन्द्रिय -वृत्तियों को अन्तर्मुख करके प्रभु में स्थिर हुआ ज्ञानी जीव ही शमीक ऋषि है।
ऐसे ज्ञानी जीव के गले में मृत सर्प पहनने का अर्थ है काल को मारना।
राजा का अर्थ है रजोगुण में फँसा,भोग प्रधान विलासी जीव।
ऐसों (रजोगुणी) के गले में (जीवित) सर्प लटकता है,अर्थात जीवित सर्प -काल उसके गले में है।
शमीक ऋषि के पुत्र ने जब यह बात जानी तो वह क्रोध से भड़क उठा कि ऋषि का अपमान करने वाला राजा अपने मन में क्या समझता है?उसने सोचा कि-" ब्रह्मतेज अब भी जगत में विध्यमान है।
मै राजा को शाप दूँगा।" उसने राजा को शाप दिया कि -
"तूने तो मेरे पिता के गले में मरा हुआ साप पहना दिया,किन्तु आज से सातवें दिन तुझे तक्षकनाग डसेगा। "
परीक्षित ने अपना मकुट उतारा तो उसे अपनी भूल का भान हुआ।
"मैने आज पाप किया। मैने मतिभ्रष्ट होकर ऋषि का अपमान किया। "
जब मति भ्रष्ट हो जाये तो मान लो कि कुछ अशुभ -पाप अवश्य होगा।
पाप हो जाय तो उसका विचार करके शरीर को सजा दो।
भोजन करने से पहले सोच लो कि मेरे हाथोंसे कुछ पाप तो नहीं हो गया न?
जिस दिन पाप हुआ हो उस दिन अनशन करो। तो फिर पाप नहीं होगा।
धन्य है परीक्षित राजा,उसने जीवन में एक बार ही पाप किया था।
पर-पाप हो जाने के बाद उन्होंने पानी तक नहीं पिया।
ऋषिकुमार द्वारा दिए गए शाप की बात सुनकर उन्होंने सोचा कि -
"अच्छा ही हुआ कि मुझे मेरे पाप की सजा मिल गई। "
परीक्षित सोचते है कि -"मे संसार के विषय-सुखों में फँस गया था,अतः मुझे सावधान करने के लिए ही
प्रभु ने मुझ पर कृपा की है। मुझे अगर शाप न मिला होता तो मै भला कब वैराग्य धारण करता?
मेरे लिए प्रभु ने शापावतार धारण किया है। "
मृत्यु सर पर मंडरा रही है ऐसा सोचते रहोगे तो पाप नहीं होगा।
परीक्षित ने गृहत्याग किया और वे गंगातट पर आये। उन्होंने गंगास्नान किया और यह निश्चय किया कि अन्न-जल का त्याग करके अब प्रायश्चित-व्रत करूँगा।
बड़े-बड़े ऋषियों ने जब यह बात सुनी तो बिना बुलाये राजा से मिलने आ गए।
उन्होंने सोचा कि परीक्षित अब राजा नहीं राजर्षि बन गए है। राजा के विलासी जीवन का अब अंत हुआ है।