राजा ने अपने पाप की बात उन ऋषियों को बताई।
परीक्षित ने कहा कि -मैने पवित्र संत के गले में मरा हुआ साँप पहनाकर पाप किया है । मेरा उध्धार कीजिये।
मैने सुना है कि पापी को यमदूत मारते-पीटते ले जाते है। मेरा मरण सुधरे,ऐसा कोई उपाय बताए।
मुझे डर लगता है। मैने मरने की अभी तक तैयारी नहीं की है।
आप कुछ ऐसा करें कि सात दिन में मुझे मुक्ति मिल जाये। अंत समयके कर्तव्य -आदि मुझे बताइये।
मुझे ऐसी बातें बताइये और मुझे ऐसा मार्ग बताइए,जिससे परमात्मा के चरणों में लीन हो जाऊ।
मुझे ऐसी कथा सुनाइए कि जिससे मेरी मुक्ति हो।
ऋषिगण सोचने लगे। हम भी मृत्यु से डरते है। अंत समय में प्रभु का नाम होठों पर आना मुश्किल बात है।
मात्र सात ही दिन में राजा को मुक्ति कैसे मुक्ति मिलेगी।
यह तो अशक्य ही है। इससे सब ऋषि चुप हो गए है। कोई भी ऋषि राजा को उपदेश देने को तैयार न हुआ। परीक्षित सोचते है कि समर्थ होने पर भी ये ऋषि मुझे उपदेश क्यों नहीं दे रहे ?
वे सोचते है कि जगत के जीव चाहे मेरा त्याग करे,मै भगवान का आसरा लूँगा। भगवान नारायण कृपा करेंगे।
मै पापी हूँ किन्तु पाण्डववंशी हूँ। अब बिना ईश्वर के मेरा कोई नहीं है। भगवान की स्तुति की।
द्वारिकानाथ को याद किया।
"मै पापी हूँ किन्तु भगवान का हूँ। नाथ, मै आपका हूँ। हे द्वारिकानाथ,मै आपके शरण हूँ।
आप ने जब मेरा जन्म उजागर किया है तो मेरी मृत्यु भी सुधारिए। "
परमात्मा ने शुकदेवजी को प्रेरणा दी कि वहाँ जाओ। शिष्य योग्य है। परीक्षित के जन्म को सुधारने के लिए द्वारिकानाथ स्वयं आये थे। किन्तु मुक्ति देने का अधिकार केवल शिवजी का है इसलिए भगवान शिवजी से कहा। सो भगवान शिवजी के अवतार शुकदेवजी वहाँ पधारे।
शुकदेवजी दिगंबर है। वासना का वस्त्र छूट गया था। सोलह वर्ष अवस्था है। कमर पर न मेखला है न लंगोटी। आजानुबाहु है। वक्षः स्थल विशाल है। दृष्टी नासिका के अग्र भाग पर स्थिर है।
मुख पर बालों की लट बिखरी हुई है। वर्ण कृष्ण की भाँति श्याम है और तेजस्वी भी है।
शुकदेवजी पीछे बालक पड़े है,और उनके पर बालक धूल उड़ा रहे थे। "नागाबाबा चला ,नागाबाबा चला।"
किन्तु शुकदेवजी मानो यह सब कुछ जानते ही नहीं। थे। वृत्ति ब्रह्माकार है।
वे ब्रह्मचिंतन करते हुए देह से अभान हो गए है।
चारों और प्रकाश फैल गया। ऋषि-मुनि सोचते है-कि- सूर्य नारायण तो कही धरती पर नहीं उतरे ?
मुनि जान गए कि ये तो शंकर के अवतार श्रीशुकदेवजी पधारे है।
सभा में शुकदेवजी पधारे। व्यासजी उस सभा में थे। उन्होंने खड़े होकर शुकदेवजी का वंदन किया।
शुकदेवजी का नाम सुनते ही व्यासजी भी भाव -विभोर हो गए।