कैसा निर्विकार है? मेरा बेटा !! वो भागवत कहेगा और मै सुनूँगा।
राजा के कल्याण के हेतु पधारे हुए शुकदेवजी सुवर्ण-सिंहासन पर विराजे।
परीक्षित ने आँखे खोली। और शुकदेवजी को देखते ही सोचा कि-
"मेरा उध्धार करने के लिए इन्हें प्रभु ने भेजा है। अन्यथा मुझ जैसे पापी और विलासी के यहाँ वे नहीं आते। "
परीक्षित ने शुकदेवजी के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। परीक्षित न अपना पाप उन्हें कह सुनाया।
"मै अधम हूँ। मेरा उध्धार करो। जिसका मरण नजदीक है उस को क्या करना चाहिए?
मनुष्यमात्र का कर्तव्य क्या है? उसे किसका श्रवण,जप,स्मरण और भजन करना चाहिए?
गुरुदेव शुकदेवजी का ह्रदय पिघल गया। शिष्य सुयोग्य है।
अधिकारी शिष्य मिलने पर गुरु का दिल कहता है कि -उसे अपना सर्वस्व दे दू।
गुरु ब्रह्मनिष्ठ हो और निष्काम भी हो तथा शिष्य प्रभु दर्शन के लिए आतूर हो तो
सात दिन तो क्या सात मिनट में प्रभु दर्शन हो सकते है।
अन्यथा गुरु लोभी हो और शिष्य लौकिक सुख की इच्छा करता हो तो दोनों नरकवासी होते है।
शुकदेवजी कहते है-राजन तू घबराता क्यों है?अभी सात दिन बाकी हैं -मै यहाँ कुछ लेने नहीं देने आया हूँ।
मै निरपेक्ष हूँ। मुझे जो आनन्द मिला है और परमात्मा के दर्शन हुए है -वो ही दर्शन तुझे करा ने आया हूँ।
मुझे जो मिला है वह तुझे देने आया हूँ।
मेरे पिताजी भूख लगने पर एक बार बेर खाते थे। किन्तु इस कृष्ण-कथा में भजनानन्द इतना मिलता है कि मुझे तो बेर भी याद नहीं आते। मेरे पिताजी वस्त्र पहनते थे।
प्रभुचिंतन में मेरा वस्त्र कब और कहाँ छूट गया,यह भी मुझे खबर नहीं है।
सात दिन में तुझे कृष्ण-दर्शन कराऊँगा। मै बादरायणी(का पुत्र) हूँ। (व्यास-भगवान को बादरायणी कहते है)
शुकदेवजी बादरायण -व्यासजी के पुत्र है। व्यासजी का तप और वैराग्य कैसा था?व्यासजी सारा दिन जप-तप किया करते थे और भूख लगने पर दिन में एक बार बेर खाते थे। केवल बेर का ही आहार करते थे,अतः वे बादरायण कहलाये। ऐसे बादरायण के शुकदेवजी पुत्र है।
जिसमे खूब ज्ञान-वैराग्य हो,वह दूसरे के सुधार सकता है। शुकदेवजी में वे दोनों पूर्णतः थे।
राजन,जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो। भविष्य का विचार भी मत करो। वर्तमान को सुधारो।
सात दिन बाकी रहे है। मेरे नारायण का स्मरण करो,तुम्हारा जीवन अवश्य उजागर होगा।
लौकिक रस के भोगी को प्रेमरस नहीं मिलता,उसे भक्तिरस कभी भी नहीं मिलता।
जिसने काम का त्याग किया वाही रसिक है। जगत का रस कटु है,प्रेमरस ही मधुर है।
जो इन्द्रियों के अधीन होता है.उसे काल पकड़ता है।
भागवत का वक्ता शुकदेवजी जैसा होना चाहिए। ऐसे प्रथम स्कंध में अधिकार का वर्णन है।
पहला स्कंध (अधिकार लीला) समाप्त।