प्रत्येक क्षण को सुधारने का अर्थ है हर क्षण को अपनी दृष्टि में रखना।
लोग मानते है कि सारा जीवन काम-धन्धा करेंगे,उल्टा-सीधा करके धन कमाएंगे और अंतकाल में भगवान का नाम लेकर संसार पार कर लेंगे। यह गलत विचार है इसलिए तो स्पष्टता की गई है कि “सदा तद्भावभावितः” हमेशा जिस भाव का चिंतन करोगे उसी का अंतकाल में भी स्मरण होगा।
यह तो सर्वविदित बात है कि -
जिस बात का सर्वदा चिंतन किया गया है,मृत्यु के समय भी उसी का स्मरण होता रहेगा।
एक सुनार बीमारी के कारण बिस्तर में पड़ा हुआ था। कई महीनो तक वह बाज़ार जा नहीं सका था-तो
उसे सोना और सोने के भाव के ही विचार आते थे। अन्तकाल आया। बुखार बढ़ता ही जा रहा था।
डॉकटर ने आकर बुखार नापकर कहा कि (१०५ डिग्री) है। सोनार ने समझा कि किसी ने सोने का भाव बताया। वह अपने पुत्र से कहने लगा कि बेच दे,बेच दे।
हमने अस्सी के भाव में लिया था। अब एक्सोपांच हुआ है तो बेच दे। ऐसा बोलते -बोलते ही वह मर गया।
सुनार ने सारा जीवन सोना खरीदने-बेचने और सोने के विचार में ही गुजर था
सो अन्तकाल में उसे सोने का ही विचार आता रहा।
धन-सम्पति की ही चिंता करने वाले को,रुपया-पैसा पैदा करने वाले को अंतकाल में भी उसी का विचार आता है। धन कमाना कोई पाप नहीं है किन्तु उसे कमाते समय भगवान को भुला देना पाप है।
शुकदेवजी ने कहा कि हे राजन,मनुष्य की आयु इसी तरह समाप्त हो जाती है। निद्रा और विलास में रातें गुज़र जाती है और धन-प्राप्ति के प्रयत्न में तथा परिवार के परिपालन में दिन गुज़र जाते है।
शुकदेवजी कहते है-राजन जो समय चला गया है उसके लिए अब मत रोओ। उसका विचार भी मत करो।
भूतकाल की बाते सोचते रहने से कोई लाभ नहीं है। तुम अपना वर्तमान सुधारो।
सात दिनों का जो समय मिला है उसी का सदुपयोग कर लो।
हे राजन, मानव जीवन की अंतिम परीक्षा मृत्यु है। वैसे तो-मनुष्य की प्रतिक्षण मृत्यु होती रहती है।
जो प्रतिक्षण को सुधारता है उसकी मृत्यु सुधरती है और
जिसकी मृत्यु सुधर गई उसका जीवन भी उजागर हो जाता है।
यह शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है अर्थात प्रतिक्षण शरीर का नाश होता रहता है।
सो प्रभु का स्मरण प्रतिक्षण करो।शंकराचार्य ने शांकरभाष्य में यही कहा है।
अन्यथा जिसका जीवन निद्रा,धनोपार्जन और परिवार के परिपालन में होगुजर गया हो
उसे अंतकाल में वही सब कुछ याद आता रहता है।
एक बूढा बीमार हुआ। उसका सारा जीवन द्रव्य आदि के पीछे ही बिता था। अंतकाल नजदीक आया।
उसके पुत्रादि कहते है कि -
पिताजी,अब आप श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे,हे नाथ नारायण वासुदेव का जप कीजिये।
किन्तु उस बूढ़े के मुंह से ये शब्द निकलते ही नहीं है।
जीवन में कभी भगवान का नाम लिया हो तो याद आये न? यह बूढ़ा मन से द्रव्य का ही चिंतन कर रहा है। उसकी दृष्टि आँगन में गई। उसने देखा कि बछड़ा झाडू चबा रहा है।