इतना छोटा नुक्सान भी वह बूढ़ा कैसे सह सकता है?
उसका दिल जलता की मैने कैसे धन कमाया है यह लोग क्या जाने?
उसे लगा कि रूपये-पैसे की तथा अन्य वस्तुओं की इन लोगो के लिए कोई कीमत नहीं है।
मेरे जाने के बाद ये लोग घर को ही लूटा देंगे।
वह बूढ़ा स्पष्ट तो बोल सकता नहीं था इसलिए बड़बड़ाने लगा।
उसके बेटे ने सोचा कि पिताजी भगवान का नाम लेना चाहते है किन्तु कुछ बोल नहीं सकते।
दूसरे ने सोचा कि पिताजी कभी भगवान का नाम तो लेते नहीं थे सो वे मिलकत के बारे में कहना चाहते है।
कुछ धन छुपा रखा है उसके बारे में कहना होगा। उन्होंने डॉक्टर को बुलाकर विनती कि -
कुछ ऐसा कुछ करो कि वे दो-चार शब्द बोल सके। डॉक्टर ने इंजेक्शन के लिए हज़ार रूपये फीस मांगी।
पुत्रो ने सोचा की-शायद पिताजी - कही गाड़कर रखा हुआ धन बताएँगे। अतः हज़ार रूपये खर्च डाले।
पिता की बात सुने को सभी आतुर थे। दवा ने अपना काम किया।
कुछ शक्ति मिली तो वह बूढ़ा बोला-सब मेरी ओर क्यों देख रहे हो?वहाँ देखो। वह बछड़ा कब से झाड़ू खा रहा है। और इस तरह "बछड़ा-झाड़ू -झाड़ू" करते हुए बूढ़े ने देह त्याग किया।
आप देखे,ध्यान रखे कि कहीं आपकी भी ऐसी दशा न हो।
यह बात हँसने के लिए नहीं,सावधान करने के लिए कही है।
लोग सोचते है कि आने वाले काल (मृत्यु)की खबर कैसे हो सकती है?
किन्तु वह तो पहले से ही सावधान करके आता है। काल सभी को सावधान करता है। किन्तु लोग मानते नही है। काल आगमन के पहले पत्र लिखता है। किन्तु काल का पत्र पढ़ना कोई नहीं जानता।
बाल श्वेत हो जाये तो मानो कि काल का नोटिस आ गया है और सावधान बनो। दांत गिर जाते है तो लोग नकली दांत लगवाते है। दांत गिरने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अब दूध-चावल खाकर प्रभु भजन करने का समय आ गया है। लेकिन लोग नकली दांत इसलिए लगवाते है कि पापड खाने का मजा आएगा।
ऐसा कहाँ तक चलेगा? खाने से शान्ति तो मिलती ही नहीं,पर इससे विपरीत वासना और भड़कती ही है।
भागवत की कथा सुनकर परीक्षित कृतार्थ हुए। मरण को सुधारने के लिए भागवत शास्त्र है।
जीवन को जो सुधारता है -उसी का मरण सुधरता है।
शुकदेवजी कहते है - राजन,मरण को सुधारना हो तो प्रत्येक क्षण को सुधारो। रोज सोचो,विचारो,मन को बार -बार समझाओ कि ईश्वर के बिना मेरा कोई नहीं है। इस शरीर को भी एक दिन मुझे छोड़ना पड़ेगा अतः यह भी मेरा नहीं है। जब शरीर भी मेरा नहीं है तो मेरा है ही कौन? सभी सम्बन्ध तो शरीर के कारण ही उत्पन्न हुए है।
भावना करो की न तो मै किसी का हूँ और न मेरा कोई है। इस तरह ममता को हटाओ। संग्रह से ममता बढ़ती है इसलिए अपरिग्रही बनो। तृप्ति भोग में नहीं,त्याग में है।
ममता सिध्ध करने के लिए व्यक्तिगत ममता दूर करो।
इन्द्रियों को भोग से नहीं,प्रभु-स्मरण से प्रभु सेवा से ही शान्ति मिलती है।
दुःख का कारण देह ही है। दुःख भोगने के लिए ही तो देह मिला है न?
पाप ही न किये होते तो यह देह और यह जन्म ही क्यों मिला होता?
रामदास स्वामी ने दासबोध में लिखा है -देह धारण करना ही पाप है।