कीर्तन-भक्ति श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है। सूरदासजी भजन करते है तो श्रीकृष्ण उनके हाथ में तम्बूरा देते है। सूरदासजी कीर्तन करते है और कन्हैया सुनता है।
भगवान कहते है कि न तो मेरा वैकुंठ में वास है और न तो योगियों के ह्रदय में। मै तो वही पर रहता हूँ जहाँ मेरा भक्त प्रेम से आर्द्र होकर मेरा कीर्तन करता है।
झोंपड़ी में विदुर-सुलभा भगवान के नाम का कीर्तन कर रहे है। किन्तु वे नहीं जानते कि
जिसका वे कीर्तन कर रहे है,वह आज साक्षात उनके द्वार पर खड़ा है।
मनुष्य का जीवन पवित्र होगा तो भगवान बिना आमंत्रण पाए भी उसके घर आएंगे।
जो परमात्मा के लिए जीता है,उसके घर परमात्मा स्वयं आते है।
बिना बुलाए ही भगवान आज विदुरजी के द्वार पर आ खड़े हुए है। बाहर प्रतीक्षा करते हुए दो घंटे निकल गए। कड़ी भूख लग रही है। भगवान सोच रहे थे कि कब इनका कीर्तन समाप्त होगा?
अंत में व्याकुल होकर श्रीकृष्ण ने झोपड़ी का द्वार खटखटाया और कहा - चाचाजी मै आ गया हूँ।
विदुरजी कहा -देवी! द्वारिकानाथ आए है,ऐसा लगता है।
द्वार खोलने पर चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए। अति हर्ष के आवेश में विदुर-सुलभा आसन तक न दे सके,तो प्रभु ने स्वयं अपने हाथों से दर्भासन बिछा लिया और विदुरजी को भी हाथ पकड़ कर पास में बिठा लिया।
भगवान ने कहा कि-चाचिजी, मै भूखा हूँ। मुझे खाना दो।
भक्ति इतनी सशक्त है कि वह निष्काम भगवान को भी सकाम बना देती है। वैसे तो भगवान को भूख नहीं लगती,किन्तु भक्त के कारण ही उन्हें खाने की इच्छा होती है।
विदुरजी ने पूछा कि आपने दुर्योधन के घर भोजन नहीं किया क्या?
कृष्ण ने कहा-चाचाजी!जिसके घर आप नहीं खाते,वहाँ मै भी नहीं खा सकता।
सुलभाको भगवान खुद घर पे आये है-यह स्वप्न सा लगता है, सोचने लगी कि भगवान का स्वागत कैसे करे?
वे दोनों तो तपस्वी थे और केवल भाजी ही खाते थे।
उनको संकोच हो रहा था कि कृष्ण को भाजी कैसे खिलाये? सुलभा को को कुछ सूझ नहीं रहा था।
इतने में द्वारिकानाथ ने चूल्हे से भाजी का बर्तन उतार लिया और उसे खाने भी लगे।
स्वादिष्टता और मिष्टता वस्तु मे नहीं,प्रेम में है। शत्रु की हलवा-पूरी भी विष जैसी लगती है।
भगवान को दुर्योधन के घर के मिष्टान अच्छे नहीं लगे,किन्तु विदुरजी की भाजी खाई।
अतः लोग आज भी गाते है-
सबसे उँची प्रेम सगाई
सबसे उँची प्रेम सगाई
"दुर्योधन को मेवा त्यागो साग विदुर घर पाई।
प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाक्यो भूल गए ठकुराई।"
ईश्वर भूखे नहीं होते ऐसा उपदिषद् का सिध्धान्त है। जीवरूपी पक्षी विषयरूपी फल खाता है,अतः दुखी होता है। ईश्वर नित्य आनन्दरूप है -भागवत का यह सिध्धान्त सच्चा है।
ईश्वर तृप्त है,किन्तु जब किसी भक्त का ह्रदय प्रेम से भर आता है तो वे निष्काम होने पर भी सकाम बनते है। सगुण और निर्गुण एक ही है। निराकार ही साकार बनता है।
ईश्वर प्रेम के भूखे है। प्रेम में ऐसी शक्ति है कि जड़ को भी चेतन बना देता है,निष्काम को सकाम बना देता है,
निराकार को साकार बना देता है। वस्तु का परिवर्तन करने की शक्ति ज्ञान में नहीं,प्रेम में ही है।
अतः ज्ञान से प्रेम श्रेष्ठ है।