किन्तु विदुरजी समझकर पहले ही घर से निकल गए। धनुष-बाण भी वही छोड़ गए।
धनुष-बाण वहां छोड़ दिया,वो यह बात बताते है कि-उन्होंने जैसे कौरवो को उपदेश दिया कि -
"पांडवों के साथ धनुष-बाण लेकर मत लड़ो। अगर लड़ना हो तो मात्र वाणी से लड़ो।"
विदुरजी तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। धृतराष्ट्र द्वारा भेजा गया धन भी उन्होंने लौटा दिया।
विदुरजी छतीश वर्ष की यात्रा करने निकले किन्तु अपने साथ उन्होंने कुछ भी नहीं लिया।
जबकि आजकल के लोग यात्रा करने निकलते है तो छत्तीस चीजें साथ लेकर चलते है।
आवश्यकता कम करते जाओगे तो पाप भी घटते रहेंगे और जरुरत बढ़ाओगे तो पाप भी बढ़ते रहेंगे।
प्राप्त स्थिति से असंतोष का अनुभव ही मनुष्य को पाप प्रेरणा देता है।
इसलिए कहा है की पाप का पिता असंतोष और लोभ है।
यात्रा का अर्थ है - याति त्राति। इन्द्रियों को प्रतिकूल विषयों से हटाकर अनुकूल विषयों में लगा देना ही यात्रा है। तीर्थयात्रा उसी की सफल होती है,जो तीर्थ जैसा पवित्र होकर वहाँ से लौटता है।
विदुरजी प्रत्येक तीर्थ में अनशन करते थे और विधिपूर्वक स्नान करते थे।
पृथ्वी पर वे अवधूत वेष में परिभ्रमण करते थे जिससे स्नेही-सम्बन्धी उन्हे पहचान न सके।
वे अल्पमात्रा में बिलकुल पवित्र भोजन करते थे। शुध्ध वृति से जीवन निर्वाह करते,प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते,भूमि पर शयन करते और भगवान जिनसे प्रसन्न हो सके ऐसे व्रत करते थे।
यात्रा करते हुए विदुरजी यमुना किनारे वृन्दावन आये।
विदुरजी ने अनुभव किया कि श्रीकृष्ण गायों को लेकर यमुना के किनारे आये है। वहाँ कदम का वृक्ष है।
कदम्ब पर झूलते हुए श्रीकृष्ण बंसी बजाते है और अपनी प्यारी गायों को बुलाते है।
विदुरजी की ऐसी भावना थी कि वे लीला को प्रत्यक्ष देखें। अतः उन्हें यह अनुभव हुआ।
विदुरजी सोचते है कि मेरी अपेक्षा ये पशु श्रेष्ठ है,जो परमात्मा से मिलने के लिए आतुर होकर दौड़ते है।
उनकी आँखे प्रेमाश्रु से गीली हो गयी। ऐसा प्रसंग कब आयेगा कि मे भी इन गायो की भांति कृष्ण-मिलन के लिए दौडूंगा। वे कृष्णलीला का चिंतन करते हुए कृष्ण-प्रेम में पागल हो गए है।
इस तरफ प्रभु ने द्वारिका का उपसंहार करने का निश्चय किया।
प्रभु उस समय प्रभास में थे। उध्धव को ज्ञान का उपदेश दिया। भागवत धर्म का उपदेश दिया। और कहा कि
यह सोने की द्वारिका समुद्र डूब जाएगी। तेरे से यह देखा नहीं जायेगा। तू बद्रिकाश्रम जा।
उध्धव ने कहा कि मै अकेला कैसे जा सकता हूँ। हम दोनों साथ जायेंगे।
श्रीकृष्ण ने कहा कि मै क्षेत्रज्ञ रूप से तेरे साथ ही हूँ। मे तुझमें समाया हुआ हूँ।
मेरा स्मरण करने पर उसी क्षण मे उपस्थित हो जाऊँगा। तब उद्धवजी ने प्रार्थना की कि बिना किसी आधार के भावना नहीं कर सकता। मुझे कुछ आधार दीजिये,तब श्रीकृष्ण ने उसे चरण-पादुका दी।
उध्धव ने मान लिया कि अब द्वारिकानाथ मेरे साथ ही है। अब मै अनाथ नहीं सनाथ हूँ।
ये पादुका नहीं प्रभुजी प्रत्यक्ष मेरे साथ है। उन्होंने मस्तक पर पादुकायें रख ली।