उद्धवजी कहते है - आप भाग्यशाली है। भगवान ने आपको एक बार नहीं,तीन-तीन बार याद किया था।
उन्होंने यह भी कहा था कि सभी को मैंने कुछ-न -कुछ दिया है किन्तु विदुरजी को मै कुछ न दे सका।
इसलिए मैत्रेयजीको उन्होंने आज्ञा दी कि -जब विदुरजी तुमसे मिले तो उन्हें भागवत धर्म का ज्ञान देना।
इस बात को सुनकर विदुरजी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। प्रेम से विह्वल होकर वह रो पड़े।
उद्धवजी ने कहा -गंगाकिनारे मैत्रेयजी का आश्रम है। वह तुम जाओ।
और यह कहकर उद्धवजी ने बद्रिकाश्रम के तरफ प्रयाण किया।
परम भक्त उद्धवजी के मुख से "भगवान के प्रशंसनीय कार्यों की बात सुनकर "
तथा "प्रभु के अन्तर्धान होने के समाचार सुनकर"
तथा "परमधाम जाते समय भी प्रभु ने मुझे याद किया,ऐसा जानकार "
और,"बादमे उद्धवजी के चले जाने से" ----विदुरजी प्रेमविह्वल होकर रोने लगे।
उद्धवजी बद्रिकाश्रम गए और विदुरजी मैत्रेयजी ऋषि के आश्रम को जाने के लिए निकले।
"यमुनाजी" ने कृपा करके विदुरजी को "भक्ति" का दान दिया।
किंतु-"ज्ञान और वैराग्य" के बिना "भक्ति" दृढ़ नहीं होती और सफल नहीं होती।
"ज्ञान और वैराग्य " का दान "गंगाजी" करती है।
विदुरजी गंगा के किनारे मैत्रेयजी के आश्रम में आये। विदुरजी ने गंगाजी में स्नान किया।
गंगाजी की बड़ी महिमा है। गंगाजी के किनारे के पत्थर भाग्यशाली है क्योंकि मैत्रेय ऋषि जैसो के चरणों का
उन्हें स्पर्श-लाभ होता रहा है। इन पत्थरो पर वैष्णवो की चरणरज गिरती रही है।
आश्रम में आकर विदुरजी ने मैत्रेयजी को साष्टांग प्रणाम किया है। उनके विनय-विवेक से सभी को आनंद हुआ।
मैत्रेयी ऋषि कहते है -विदुरजी,मै आपको पहचानता हूँ। आप साधारण व्यक्ति नहीं है। आप तो यमराज के अवतार है। मांडव्य ऋषि के शाप के कारण दासीपुत्र के रूप में शूद्र के घर आपका जन्म हुआ था।
एक बार कुछ चोरों ने राजकोष से चोरी की। चोरी करके वे भागने लगे। राजा के सेवकों को इस चोरी के समाचार मिले,,तो उन्होंने चोरों का पीछा किया। सैनिकों को पीछे आते देख चोर घबरा गए। चोरी के माल के साथ भागना मुश्किल था। इतने में रास्ते में मांडव्य ऋषि का आश्रम आया। चोरो ने सारी चुराई हुई धन-सम्पति उसी आश्रम में फेंक दी और भाग गए। राजा के सैनिक पीछा करते हुए आश्रम में आये। वहाँ चुराई हुई धन-सम्पति को देख कर उन्होंने मान लिया कि यह मांडव्य ऋषि ही चोर है। उन्होंने ऋषि को पकड़ा और धन के साथ समक्ष उपस्थित कर दिया। राजा ने मृत्यु-दंड दिया।
अब मांडव्य ऋषि को वधस्तम्भ पर खड़ा कर दिया गया। वे वाही पर गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे। मांडव्य मरते ही नहीं है। ऋषि का दिव्य तेज देखकर राजा को लगा कि तपस्वी महात्मा लगते है। राजा भयभीत हो गया। ऋषि को वधस्तम्भ से उतारा गया। सारी बात जानकर राजा को दुःख हुआ और पश्चाताप होने लगा कि मैंने निरपराध ऋषि को शूली पर चढ़ाना चाहा। मांडव्य ऋषि से क्षमा के लिए प्रार्थना की।