Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-108


प्रथम हुए स्वायंभुव मनु और शतरूपा रानी।
उस समय पृथ्वी तो रसातल में डूबी  हुई थी। ब्रह्मा ने सोचा कि  निर्माण करू किन्तु उसे बसाऊ कहाँ?
अतः नासिका में से वराह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने पृथ्वी को पानी में से बहार निकाला।
रस्ते में हिरण्याक्ष को मारा और पृथ्वी का शासन मनु के हाथ में सौंपकर भगवान  स्वधाम लौट गए।

विदुरजी ने कहा कि आपने तो कथा बहुत संक्षिप्त में सुनाई। इस कथा का रहस्य क्या है?
वह हिरण्याक्ष कौन था?धरती रसातल में क्यों डूबी थी? वराह नारायणका चरित्र  मुझे सुनाइए।
यह कथा मैत्रेयजी ने विदुरजी को सुनाई थी और शुकदेवजी ने परीक्षित को।

एक अध्याय में हिरण्याक्ष के पूर्वजन्म की कथा है।
उसके बाद चार अध्याय में वराह नारायण के चरित्र का वर्णन है।

दिति -कश्यप ऋषि की धर्मपत्नी थी। एक दिन सांयकाल को दिति श्रृंगार करके पति के पास आई और
कामसुख का उपभोग करने की इच्छा प्रकट की,क्योंकि वह कामातुर हो गई थी।

कश्यप ने कहा-देवी,यह समय सांयकाल का है,यह समय कामसुख के लिए उपयुक्त नहीं है।
इस समय कामाधीन होना ठीक नहीं है। जाओ,दीपक जलाओ।

शास्त्र में कहा है कि  सौभाग्यवती स्त्री में लक्ष्मी का अंश है। सांयकाल के समय लक्ष्मीनारायण घर आते है। संध्या के समय तुलसी की पूजा करो और वहाँ  दीपक जलाओ।

दशम स्कंध में कथा है। गोपियाँ यशोदाजी से फरियाद करती है कि  कन्हैया हमारा माखन चुराकर खाता है।
तो यशोदाजी कहती है,कि अँधेरे में माखन रखा करो कि जिससे कन्हैया उसे देख न पाए।
गोपियाँ  कहती है कि माखन तो अँधेरे में ही रखा था किन्तु कन्हैया के आते ही वहाँ  उजाला छा  जाता  है।  
ईश्वर पर प्रकाशी  नहीं है,वह तो स्वयं प्रकाशी है। परमात्मा को दीपक की आवश्यकता नहीं है।
दिये की जरुरत तो मानव  को है।

सांयकाल सूर्य और चन्द्र के तेज क्षीण होते है। सूर्य बुध्धि  का स्वामी है और चन्द्र मन का।
सूर्य-चन्द्र के सांयकाल में दुर्बल होने के कारण मन और बुध्धि में काम उस समय प्रवेश करता है।
संध्याकाल में प्रभु के नाम का जप करोगे तो मन में काम का प्रवेश नहीं हो पाएगा।

कश्यप ऋषि दिति को समजाते  है कि  देवी मान जाओ। भगवान शंकर इस  समय जीवमात्र को निहारने के लिए भ्रमण करते है। अतः समय स्त्री-संग करने से शंकर भगवान का अपमान होगा और इससे अनर्थ होगा।

एक भक्त ने शंकर से पूछा कि आप शरीर पर भस्म क्यों लगाते  हो?
शिवजी ने कहा- मै  समझता हूँ  कि  शरीर भस्म है।
“भस्मन्ताम् शरीरम्।”इस शरीर का अंत में तो भस्म ही होगा।
अतः शिवजी भस्म लगाते  है और  जगत को वैराग्य का बोध देते है।

शरीर का अतिशय लालन मत करो। हमेशा याद रखो कि इस शरीर को एक न एक दिन स्मसान में ही जाना है। गृहस्थाश्रम विलास के लिए नहीं है किन्तु मर्यादा में रहकर,विवेक से काम-सुख का उपभोग करके काम का विनाश करने के लिए है। काम ऐसा दुष्ट है कि एक बार ह्रदय में प्रवेश करने के बाद वह बाहर नहीं निकलता है। एक बार काम के अंदर प्रवेश होने अपर तुम्हारा सारा सयानापन हवा हो जाएगा।
अतः जीवन सादा और पवित्र बनाओ कि मन-बुध्धि  में प्रवेश करने का अवसर काम न पा सके।


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