Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-110


अंतःकरण चतुष्टय के शुध्ध  होने पर ही ईश्वर के दर्शन होते है।
ईश्वर दर्शन करने के लिए जाते समय इन चारों  को शुध्ध  करके जाओ,

अंतःकरण के चार प्रकार है।
अंतःकरण जब संकल्प-विकल्प करता है,तब उसे "मन" का जाता है
वह अंतःकरण जब किसी वस्तु का निर्णय करता है तो उसे "बुध्धि" कहते है,
वह,अंतःकरण जब-श्रीकृष्ण का चिंतन करता है-तब- उसे "चित्त" कहते है और
उसमे जब क्रिया का अभिमान जागता  है तब उसे "अहंकार" कहते है।
मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार - इन चारों  को शुध्ध करो। बिना इन्हे शुध्ध  किए  परमात्मा के दर्शन नहीं होते।

ब्रह्मचर्य तभी सिध्ध  होता है जब कि ब्रह्मनिष्ठा  सिध्ध  होती है।
सनत्कुमार ब्रह्मचर्य के अवतार है। वे महाज्ञानी है फिर भी बालक जैसे दैन्यभाव से रहते है।
सनत्कुमार आदि नारायण के दर्शन करने के लिए वैकुण्ठ में जाते है। इसके बाद वैकुंठ  का वर्णन है।

दक्षिण में रंगनाथ का मन्दिर इस वर्णन के आधार पर ही बनाया गया है।
आदिनारायण का स्मरण करते-करते सनत्कुमार वैंकुठ के छ द्वार पार करके सातवे द्वार पर आये।
वहाँ  जय-विजय खड़े थे। सनत्कुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि
भगवान के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें रोका।

सनत्कुमारो ने कहा कि हम तो माता और पिता लक्ष्मी और नारायण से मिलने जा रहे है। द्वारपालों ने सनत्कुमारो से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर हम आपको प्रवेश करने देंगे। तब तक आप यही रुकिए। सनत्कुमार यह सुनकर क्रोधित हो गए।

क्रोध कामानुज - काम का छोटा भाई है। अति सावधान रहने पर काम को मारा जा सकता है किन्तु उसके छोटे भाई क्रोध को मारना कठिन है। काम का मूल संकल्प है।ज्ञानी किसी और के शरीर का चिंतन नहीं करते अतः काम उन्हें पीड़ा नहीं दे पाता। ज्ञानी पुरुष का पतन काम द्वारा नहीं,क्रोध के कारण ही होता है।

छ  द्वार पार  करके ज्ञानी पुरुष आगे बढ़ता है किन्तु सातवें द्वार पर जय-विजय उसे  रोकते है।
योग का सात प्रकार के अंग ही वैकुंठ के सात द्वार है।
वे है - यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान और धारणा।
इन सातों द्वारों को पार करने के बाद ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।
योग के सात अंगो को सिध्ध करने पर वैकुंठ में प्रवेश मिलेगा।

"ध्यान" का अर्थ है एक अंग का चिंतन। शरीर और आँख को स्थिर रखना ही "आसन"  है।
"धारणा" का अर्थ है सर्वांग का चिंतन। धारणा  में अनेक सिद्धियाँ विघ्न डालती है। सर्वांग का दर्शन ही धारणा है।

जय-विजय प्रतिष्ठा के दो स्वरुप है। सर्वांग के चिंतन में सिध्धि -प्रसिध्दि बाधा उपस्थित करती है।
सिद्धि का मिलने पर प्रसिध्धि होती है।
"जय" अर्थात स्वदेश में "प्रतिष्ठा" और "विजय" अर्थात परदेश  में "विजय"।
भगवान के राजमहल के सातवें द्वार पर जीव को जय और विजय रोकते है।

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