Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-112


“२५२ वैष्णव  कथा”में जमनादास भक्त का एक दृष्टांत है।
एक बार वे ठाकुरजी के लिए फूल लेने के लिए बाज़ार में निकले।
माली की दुकान पर एक अच्छा सा कमल देखा। उन्होंने सोचा कि आज अपने ठाकुरजी के लिए यही सुन्दर कमल ले जाऊ। उसी समय एक यवन आया जो वेश्या के लिए फूल लेना  चाहता था।  
जमनादास ने उस कमल की कीमत पूछी तो माली ने पांच रूपये बताई। तो यवन ने बीच में ही कह दिया कि -
मै इसकी कीमत दस रूपये दूँगा। तू यह फूल मुझे दे। तो जमनादास ने कहा कि मै पच्चीस रूपये देने के लिए तैयार हूँ। फूल मुझे ही देना। इस प्रकार फूल लेने के लिए दोनों के बीच होड़ से लग गई।

यवन ने दस हज़ार की बोली लगाई। जमनादास ने एक लाख की। वेश्या के लिए यवन को वैसा कोई सच्चा प्रेम नहीं था,केवल मोह था। उसने सोचा कि मेरे पास लाख रूपये होंगे तो कोई दूसरी स्त्री भी मिल जाएगी पर जमनादास भक्त के लिए ठाकुरजी सर्वस्व थे। उनका प्रभु-प्रेम सच्चा और शुध्ध  था। उन्होंने अपनी सारी सम्पति बेस दी और लाख रूपये में वह कमल का फूल खरीदकर श्रीनाथजी की सेवा में अर्पित कर दिया।
फूल अर्पित करते ही श्रीनाथजीके सर से मुकुट निचे गिर गया।
इस प्रकार भगवान ने बताया कि भक्त के इस फूल का वज़न मेरे लिए अत्यधिक है।

सनत्कुमार क्रोधित हुए,अतः उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार तक पहुँच कर उन्हें वापस लौटना पड़ा।
सनत्कुमार ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि - राक्षसो में ही विषमता होती है
तुम दोनों के मन में भी विषमता है। अतः तुम राक्षस हो जाओ।
दैत्यकुल में तुम्हे तीन बार जन्म लेना पड़ेगा।

भगवान ने सोचा कि इन्होने मेरे आँगन में ही पाप किया है,अतः वे घर में आने के पात्र ही नहीं है।
इन्होने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है। अतः वे मेरे धाम में आने की पात्रता गँवा चुके है।
मै बहार जाकर उन्हें दर्शन दे आऊ।
सनकादिको को अंदर प्रवेश न मिल सका। यदि वे अंदर जा सके होते तो फिर बाहर आने का प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता,कारण भगवान का परमधाम तो है - “यद्गत्वा न निरवतंते”.
भगवान  ने लक्ष्मीजी से कहा कि  बाहर  कुछ झगड़ा हो रहा है। वे दोनों बाहर आये।
ठाकुरजी ने सनत्कुमारो की और नहीं देखा। आज नज़र  धरती पर है।
सनत्कुमार वंदन करते है किन्तु प्रभुजी ने उनकी ओर नहीं देखा। दोनों ऋषि भगवान से क्षमायाचना कर रहे है। प्रभुजी ने कहा कि भूल तुमसे हुई। तुम्हारा अपमान मेरा अपमान है।

सनकादि सोचते है कि हमारी प्रशंसा तो बहुत की जा रही है किन्तु हमे धाम के अंदर तो बुलाते नहीं है। हमे अभी तपश्चर्या करने की आवश्यकता है। अभी तक हमारा क्रोध नष्ट नहीं हो पाया है।

जय- विजय को सांत्वना देते हुए नारायण भगवान ने कहा -तुम्हारे तीन अवतार होंगे।
सनकादि के शाप से जय और विजय क्रमशः हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में अवतरित हुए है।

शुकदेवजी वर्णन करते है -
दिति के गर्भ में जय-विजय आये। दो बालकों  का जन्म हुआ।  
उनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखा गया।

असमय में किये गए कामोपभोग के कारण दिति-कश्यप के यहाँ राक्षसों  का जन्म हुआ।
महाप्रभुजी ने इस चरित्र के अंत में कश्यप के सर पर तीन दोष आरोपित किए  है-
कर्म त्याग,मौन त्याग,और स्थान त्याग।

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