Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-113


व्यासजी ने भागवतमे लिखा है-कि-हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रोज चार-चार हाथ भर बढ़ते थे।
यदि सचमुच ही ऐसा होने लगे तो माता-पिता की मुसीबत की -हम कल्पना कर सकते है!!
और मुसीबत को यदि नज़र -अंदाज़ कर भी दें,तो भी रोज-रोज कपडे छोटे पड़ने लगें।
किन्तु यह तो भागवत की समाधि  भाषा है। भागवत  में समाधि भाषा ही मुख्य है तथा लौकिक भाषा गौण है।

इससे  लोभ का स्वरुप बताया गया है। चार-चार हाथ भर रोज बढ़ते थे अर्थात लोभ रोज-रोज बढ़ता ही जाता है। बिना प्रभु कृपा से लोभ का अंत नहीं होता। वृध्दावस्था में शरीर जीर्ण हो जाने के कारण काम तो मर जाता है किन्तु लोभ का नाश नहीं हो पाता।

लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। पाप के बढ़ने से धरती रसातल में जाती है।
धरतीमा और  मानव-समाज दुःख रूपी रसातल में डूब जाता है।

हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह-वृत्ति और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग-वृति।
हिरण्याक्ष ने बहुत कुछ एकत्रित किया और हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया।
भोग बढ़ता है तो भोग के बढ़ने से पाप बढ़ता है। जब से लोग मानने लगे है कि  रूपये-पैसे से ही सुख मिलता है,तब से जगत में पाप बहुत बढ़ गया है।

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के संहार के लिए भगवान ने क्रमशः वराह और नृसिंह अवतार धारण किया था। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है।

भगवान ने "काम" को मारने के लिए एक ही अवतार लिया अर्थात
रावण-कुम्भकर्ण को संहारने के लिए रामचन्द्रजी का अवतार लिया।
"क्रोध" को मारने के लिए -शिशुपाल के वध के लिए एक कृष्णावतार ही लिया।
किन्तु "लोभ" को मारने के लिए दो अवतार लेने पड़े। - वराह और नरसिंह अवतार।

काम-क्रोध को मारने के लिए एक-एक अवतार ही लेना पड़ा। किन्तु लोभ को मारने के लिए दो अवतार लेने पड़े,यही बताता है कि लोभ -पर जीत  करना बड़ा दुष्कर है।

वृद्धावस्था में शक्ति क्षीण होने पर काम को जितने में कौन सी बड़ी बात है?
किन्तु लोभ तो वृद्धावस्था में भी अन्त तक नहीं छूट  पाता। लोभ को मारना कठिन है।
सत्कर्म में विघ्नकर्ता लोभ है  अतः संतोष के द्वारा उसे मारना चाहिए।
लोभ संतोष से ही मरता है। इसलिए संतोष की आदत डालो।

लोभ आदि के प्रसार से पृथ्वी दुःखरूपी सागर में डूब गई थी। अतः भगवान ने वराह अवतार लेकर उसका उध्धार  किया। वराह भगवान "संतोष" के अवतार है।
वराह अवतार यज्ञावतार  है। वर + अह वर अर्थात श्रेष्ठ और अह  का वही दिन श्रेष्ठ  है। श्रेष्ठ कर्म करने से दिवस भी श्रेष्ठ  बन जायेगा। जिस कार्य से प्रभु प्रसन्न हो,वही सत्कर्म है। सत्कर्म को ही यज्ञ  कहते है।

हिरण्याक्ष (लोभ) सत्कर्म में विघ्नकर्ता है।
मनुष्य के हाथों सत्कर्म नहीं होता क्योंकि उसे लगता है कि प्रभु ने उसे बहुत कम  दिया है।

समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को वराह भगवान ने बहार तो निकाला किन्तु उसे अपने पास न रखा। उन्होंने पृथ्वी मनु को अर्थात मनुष्य को सौंप  दी।  अपने हाथों में आया उसे औरो को दे दिया। यही "संतोष" है।

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