Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-122


संसार के पदार्थों में आनंद नहीं है, किन्तु इन्द्रियों को मनचाहे विषय मिलने पर वे अन्तर्मुख होती है।
अन्तर्मुख हुए मन में ईश्वर का प्रतिबम्ब पड़ता है,अतः आनन्द होता है।
मन के अंदर आने पर सुख मिलता है और मनके बाहर जाने पर आनंद उड़ जाता है।

कल्पना करो कि  शेठ श्रीखंड -पूरी का भोजन कर रहा है,इतने में कही से तार आता है कि
उसका कारोबार डूब गया तो वो ही श्रीखंड उसे ज़हर जैसा लगेगा और खाने को दिल ही नहीं होगा।

संसार के जड़ पदार्थों में आनन्द नहीं है।
जब-जब आनंद मिलता है,चेतन परमात्मा के सम्बन्ध के कारण ही  मिलता है।
आनन्द का विरोधी शब्द नहीं मिलेगा।
आनन्द ब्रह्मस्वरूप है। जीवात्मा भी आनन्दस्वरूप है। अज्ञान के कारण जीव आनन्द को ढूँढने के लिए
बाहर जाता है। बाहर का आनन्द लम्बे समय तक नहीं टिक सकता।

आत्मा के लिए कोई वास्तविक सुख-दुःख नहीं है। सुख-दुःख मन के कारण है।
सुख-दुःख मन का  धर्म है।
जन्म-मरण शरीर का धर्म है।
भूख और प्यास आत्मा का धर्म है।
मन में सुख-दुःख होने पर आत्मा कल्पति है कि  मुझे दुःख होता है।
मन पर हुए सुख-दुःख का आरोप अज्ञान से आत्मा अपने पर करती है।

आत्मस्वरूप में उपाधि के कारण सुख-दुःख का भास्  होता है -
आत्मा स्फटिक मणि जैसी श्वेत,शुध्ध है। उसमे विषयो का प्रतिबिम्ब पड़ने से
मन के कारण आत्मा मानती है कि उसे सुख-दुःख हुआ है।
स्फटिक मणि के पीछे जिस रंग का फूल रखोगे,वैसा ही वह दीखेगा।
उसके पीछे लाल गुलाब रखोगे तो वह लाल दीखेगा। स्फटिक मणि श्वेत है।
गुलाब से संसर्ग से वह लाल हो जाता है।

जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता है। जल के हलन-चलन के कारण वह प्रतिबिम्ब भी -चलन करता है,
कम्पित होता है। किन्तु वास्तविक चन्द्रमा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी तरह देहादि के धर्म,स्वयं न होते हुए भी जीवात्मा उन्हें अपने में कल्पित कर लेता है। अन्यथा जीवात्मा तो निर्लेप है।
निष्काम भागवत धर्म के अनुसरण से,भगवान की कृपा से और भक्तियोग से धीरे-धीरे वह प्रतीति दूर होती है।
जो भक्तिनिष्ठ है वह समस्त लोक में व्याप्त परमात्मा  देख सकेगा।

संसार के विषयों में से सभी प्रकार से हटा हुआ मन ईश्वर में लीन होता है ,मन निर्विषय होता है
और तब वह आनन्दरूप  होता है।

मन जैसा कपटी और ईश्वर जैसा भोला और कोई नहीं है।
दूसरों के लिए  कुछ करना पड़े तो तकलीफ होती है,परन्तु अपनों के लिए करना हो तो आनन्द होता है।  
ग्यारह बजे कोई साधु आएगा तो उनसे पूछा जायेगा कि चाय लाऊ या दूध।
मन कहेगा कि इतनी रात गए ये बला कहाँ से आ पड़ी।
महाराज सरल होंगे तो कहेंगे कि सुबह से भूखा हूँ,पुरी बना डालो।
अतः बनाना तो पड़ेगा किन्तु खाना बनाने के साथ-साथ बर्तनों की ठोकपिट भी सुनाई देगी।

मगर,जब, अगर रात को ग्यारह बजी भाई आये और कहे की मै नास्ता करके आया हूँ,अतः भूख नहीं है,
फिर भी वह कहेगी कि -नहीं तू भूखा होगा। मै अभी हलवा -पुरी बना देती हूँ।
यह सब मन का खेल है।
मन बड़ा कपटी है। “मेरा और तेरा”का खेल इस मन ने ही रचा है।

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