Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-124


माता देवहुति को कपिलदेव कहते है - तू तेरे मन को संभालना। तेरे मन को कोई मन्त्र में रखना।
मन कोई पाप करे सजा करना। मन से कोई पाप होता है तो मन प्रभु में स्थिर नहीं होता।

उदहारण से ये बात समझने का प्रयत्न करते है।
एक राजा के पास एक बकरा था। राजा ने एक  एलान किया कि इस बकरे को जंगल में चराकर जो उसे तृप्त करके लाएगा उसे मै आधा राज्य दूँगा,किन्तु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मै खुद करूँगा।

इस एलान को सुनकर एक मनुष्य ने राजा के पास आकर कहा कि बकरा  चराना कोई बड़ी बात नहीं है और वह बकरे को लेकर जंगल में गया। वहाँ  सारा दिन हरी घास खिलाई और शाम होने पर राजा के पास लेकर आया।
राजा ने थोड़ी हरी घास बकरे के पास रखी। बकरा खाने लगा।
इस पर राजा ने उस मनुष्य को कहा कि तूने उसे पेट भरकर घास नहीं खिलाई है।
बहुत लोग ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया।
परन्तु ज्योंहि दरबार में उसके सामने घास डाली जाती तो वह खाने लगता।

एक सत्संगी ने सोचा कि राजा के इस एलान का कोई रहस्य है,तत्व है।
मै युक्ति से काम लूँगा। वह बकरे को चराने के लिए ले गया।
जब भी बकरा घास खाने जे लिए जाता तो वह उसे लकड़ी से मारता। पूरा दिन ऐसा किया।
अंत में बकरे ने सोचा कि -यदि मै घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी।

शाम को वह सत्संगी बकरे को लेकर राजदरबार में लौटा।
बकरे को बिल्कुल घास नहीं खिलाई थी,फिर भी उसने राजा से कहा कि मैने इसे भरपेट खिलाया है,
अतः वह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा। अब परीक्षा कीजिये।

राजा ने घास डाली लेकिन बकरे खाया तो क्या उसकी तरफ देखा तक नहीं।
बकरे के मन में यह बात बैठ गई थी कि घास खाऊँगा तो मार पड़ेगी। अतः उसने घास नहीं खाई।

यह  बकरा हमारा मन है। बकरे को घास चराने ले जाने वाला जीवात्मा है। राजा परमात्मा हैं।
मन पर अंकुश रखो।  मन को मारो। मन सुधरेगा तो जीवन सुधरेगा। मन को विवेकरूपी लकड़ी से रोज पीटो।
भोग से जीव तृप्त नहीं हो सकता। त्याग में ही तृप्ति समाई हुई है।

मन अहंता और ममता से भरा हुआ है।
मन जब कुछ मांगे तब उसे विवेकरूपी लकड़ी से मारोगे तो वह बशमें हो जायेगा।
रामदास स्वामी ने मन को बोध दिया है।
दृढ वैराग्य,तीव्र भक्ति और यम -नियमादि के अभ्यास से चित वश में होता है और मन  स्थिर होता है।
जब सभी में विषय-विलास के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो जाये तब मानो कि वह जीव जागा है।

कपिल कहते है - यह मन अनादिकाल से संसार में भटकता आया है। सत्संग से मन सुधरता है। वासना का त्याग करने से मन सुधरता है। विवेकी पुरुष संग अथवा आसक्ति को आत्मा का बंधन मानते है,किन्तु संत-महात्माओं के प्रति जब आसक्ति या संग हो जाए तब मोक्ष के द्वार खुल जाते है। अतः सत्संग करो।

देवहूति ने कहा,आप सत्संग करने की आज्ञा देते है,किन्तु
मुझे तो इस संसार में कहीं भी कोई संत दिखाई नहीं देता।
कपिल भगवान ने कहा -माता,तब मानो कि तुम्ही पापी हो। पाप होने पर तो संत का मिलन  होने पर भी सद्भावना नहीं होती। संत को ढूँढने तुम कहाँ जाओगी? तुम ही संत बनोगी तो तुम्हे सन्त मिलेंगे।
एकनाथ,तुकाराम,नरसिंह आदि ग्रहस्थाश्रमी थे। वे घर में रहकर ही संत बने थे।
तुम ही संत बनोगी तो तुम्हे संत मिलेंगे।


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