Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-127


संत पुरुष प्रभु के हितार्थ सर्वस्व का त्याग करते है।
संत परमात्मा के लिए संसार के विषयों को बुध्धिपूर्वक त्याग करते है।
और भगवानभी उसकी  परीक्षा करके ही उसको अपनाते है।
“मै भूख से व्याकुल करूँगा,भूखा ही सुलाऊँगा,तन को गला दूँगा और उसे वो सहन कर लेगा,तब उसे सुखी करूँगा।"

भगवान ने नरसिंह मेहता की कई बार परीक्षा ली थी।
मेहताजी ने भगवान  से कहा-कि-भगवान,आपने मेरी परीक्षा कि,वह तो ठीक है,
पर, हे भगवान,इस कलियुग में आप ऐसी परीक्षा करेंगे तो कोई भी आपकी सेवा नहीं करेगा।

भगवान की कथा सुनने से श्रध्धा दृढ़ होती है। उसके बाद भगवान के लिए आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति बढ़ने से व्यसनात्मिका शक्ति प्राप्त होती है और जिसकी भक्ति व्यसनात्मिका बने,उसकी मुक्ति सुलभ होती है।
भक्ति जब व्यसन से उत्कृष्ट बनती है,तब ईश्वर के पास ले जाती है।
कपिल कहते है-
हे माता! तीव्र भक्ति के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तीव्र भक्ति का अर्थ है व्यसनात्मिका भक्ति।
तीव्र भक्ति का अर्थ है - एक भी क्षण ईश्वर से विभक्त न होना।

माँ, यह सब जो दृश्यमान है वह सत्य नहीं है। स्वप्न के सत्य जैसा है.स्वप्न सत्य जैसा दीखता है,पर वह असत्य है.स्वप्न असत्य होते हुए भी सुख-दुःख देता है।
जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले को अपना मस्तक बिना कटे ही कट जाने की भ्रान्ति होती है और वह रोने लगता है,उसी प्रकार अविध्या के कारण जीवात्मा को सब भ्रान्ति होती है। इसे ही माया कहते है।
जैसे,वस्तु न होने पर भी वह स्वप्न में दिखाई देती है,
उसी तरह तात्विक दृष्टी से कुछ भी न होते हुए भी -
जागृतावस्था में माया और अज्ञान के कारण सब कुछ का आभास होता है।
हे,माता,यह जगत स्वप्न जैसा है। और असत्य है.

"स्वप्न के जैसा असत जगत "
यह सिध्धान्त भागवत में बार-बार इसलिए कहा गया है कि जिससे जगत के पदार्थ के लिए मोह न जागे।
संसार के विषयो के प्रति पूर्णतः वैराग्य हो,इसलिए यह सिध्धांत बार बार कहा गया है।

संसारिक सुख के उपभोग की लालच जब तक बनी रहे,तब तक मानो कि तुम सोये हुए हो।
जब मनुष्य जागता है तो -उस जागे हुए को ही कन्हैया मिलता है।
सुख भोगने की इच्छा बड़ी दुःखद है। भगवत-ध्यान में जगत विस्मृत हो जाये तभी ब्रह्म सम्बन्ध जुड़ जाता है।

ध्यान में प्रथम शरीर को स्थिर करो,फिर आँखों को स्थिर करो और अन्त में मन को स्थिर करो।
जब तक शरीर और आँखे स्थिर नहीं हो पाती तब तक मन स्थिर नहीं हो पाता।
आँखों में श्रीकृष्ण के स्थिर होने पर मन शुध्ध होता है। श्रीकृष्ण के स्वरुप में ध्यान रखकर कथा सुनो।
जिसे ध्यान करना है वह एक आसन  पर बैठे और मन को स्थिर करे।
ध्यान करते समय संसार को मन से निकालो। बिना ध्यान के दर्शन परिपूर्ण नहीं होता।

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