संसार में रहकर ज्ञान-भक्ति में निष्ठां रखना सरल नहीं है। भूमि का मन पर प्रभाव पड़ता है।
ध्यान करने वाले को पवित्र और एकांत स्थान में बैठकर ध्यान करना चाहिए।
कपिल कहते है - माता,जिसे ध्यान करना है,वह पवित्र भोजन का परिमित मात्रा में सेवन करे।
आहार सात्विक और अल्प होना चाहिए। जिसे अजीर्ण हो,वह ब्रह्मचर्य का सेवन नहीं कर सकता।
जिसे ध्यान करना हो,वह चोरी न करे।
मनुष्य कई बार आँख और मन से भी चोरी करता है। अन्य की वस्तु का मानसिक चिंतन भी चोरी ही है।
जो ध्यान करना चाहता है,उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
सभी इन्द्रियों से ब्रह्मचर्य का पालन किया जाए। कई लोग शारीरिक ब्रह्मचर्य का पालन करते है किन्तु
मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते। ब्रह्मचर्य का मानसिक भंग,शाररिक भांग जैसा ही है।
मन से करो या आँखों से,किन्तु चोरी तो चोरी ही है। अतः प्रत्येक इन्द्रिय से ब्रह्मचर्य का पालन करो।
एक दिन के ब्रह्मचर्य-भंग से चालीस दिन तक मन स्थिर नहीं हो पाता।
जब तक देह का ख्याल है,तब तक धर्म न छोड़ो।
इसके बाद ध्यान की विधि बताई गई है जिसका वर्णन आगे हो गया है।
कपिल भगवान ने माता देवहूति को ध्यान करने की आज्ञा दी। ध्यान की बिना ईश्वर का अनुभव नहीं होता।
वे कहते है -माता,परमात्मा के अनेक स्वरुप है जिनमे-से किसी को भी इष्टदेव मान कर उसका ध्यान करो।
हे माता -तुम चतुर्भुज नारायण का ध्यान करो। ध्यान करने से पहले ठाकुरजी के साथ सम्बन्ध स्थापित करना जरुरी है। दास्य भक्ति में पहले चरणों में दृष्टी स्थिर करनी पड़ती है। बार-बार मन को किसी एक स्वरुप में स्थिर करो। ध्यान में तन्मयता होने पर संसार विस्मरण हो जाता है। ध्यान में देहभान और जगतभान विस्मृत होता जाता है। ज्यों-ज्यों संसार का विस्मरण होता है,त्यों-त्यों प्रभु-स्मरण में आनंद आने लगता है।
शक्कर की एक गुड़िया सागर की गहराई नापने अंदर गई,पर वह गई सो गई। उसमे मिल गई, वापस आई नहीं.
परमात्मा समुद्र के समान व्यापक है,विशाल है।
ज्ञानी पुरुष परमात्मा-स्वरुप के साथ घुलमिल (एक हो) जाते है कि फिर वे यह कह नहीं सकते कि
वे इश्वर से अलग है.ध्यान करने वाला ध्यान करते हुए ध्येय (इश्वर) में मिल जाता है। यही अद्वैत है।
ध्यान करने वाले का “अहम" (मेरापन) ईश्वर से मिल जाता है। देहभाव की विस्मृति होती है,और,
देहभान के विस्मृत होने पर जीव और शिव (परमात्मा) एक हो जाते है।
फिर जीव का जीवत्व ईश्वर में मिल जाता है,जीवत्व स्वतंत्र नहीं रह पाता।
जिस प्रकार कीड़ा भवरी का स्मरण करते हुए भंवरी बन जाता है,
उसी प्रकार जीव ईश्वर का चिंतन करते-करते प्रभुमय बन जाता है।
दोनों का मिलन होने के बाद जीवभाव नहीं रह जाता है।