Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-129


तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है -
जिस पर वह (प्रभु) स्वयं कृपा करता है,वही उनको (प्रभु)को जान सकता है
और फिर उसे (प्रभुको)  जानकार वह प्रभुमे तन्मय (ईश्वरमय) हो जाता है।
ध्याता (ध्यान-कर्ता) परमात्मा (ध्येय) का  जिस स्वरुप का ध्यान करता है,
उसी ध्येय  (परमात्मा)की शक्ति ध्याता (ध्यानकर्ता) में आती है।

शंकराचार्य के जीवन का एक प्रसंग है।
एक यवन उनसे मिला और बोला कि मै भैरव-यज्ञ करना चाहता हूँ।
भैरव-यज्ञ में पृथ्वी के चक्रवती सम्राट के मस्तक के आहुति देनी पड़ती है। वह तो अप्राप्य है,अतः तुम ही अपना मस्तक मुझे दे दो। तुम्ही ने कहा है कि आत्मा देह से भिन्न है,परमात्मा से भिन्न है।
देहदान से तुम मर नहीं जाओगे,अतः मस्तक मुझे दे दो।

शंकराचार्य ने कहा-मेरे शारीरिक मस्तक से अगर तेरा काम बन सकता हो तो,ले जा।
शंकराचार्य का देहाध्यास दूर हो चूका था अतः वे मस्तक देने को तैयार हो गए।
वे बोले कि जब शिष्य न हो और मै ध्यानमग्न होऊ तभी आकर मस्तक ले जाना।
एक दिन जब मठ में कोई नहीं था तब वह यवन मस्तक लेने आया।
उस समय -शंकराचार्य के शिष्य पद्मपाद -की जो नरसिंह स्वामी के भक्त थे।
उनको गंगाकिनारे अनेक अपशुकन हुए जिससे वे दौड़ते हुए आश्रम में वापस आये। वहाँ  उन्होंने देखा कि एक यवन तलवार से गुरूजी का मस्तक काटने की तैयारी कर रहा था।
पद्मपाद ने क्रोध से सिंह बनकर उस यवन को चिर-फाड़कर मार डाला।

यह प्रसंग हमे बताता है कि उपासक में उपास्य की (जिनकी उपासना करता है-उसकी) शक्ति आरोपित होती है। नरसिंह स्वामी का ध्यान करने से पद्मपाद में नरसिंह का आवेश उतर आया।

शुकदेवजी वर्णन करते है -
मदिरा से मदांध बने व्यक्ति का देहभान नहीं रहता। उसी प्रकार ध्यान करता उअ जो देहभान भूलता है,
वह भगवान के पीछे पड जाता है। प्रभु प्रेम में जो पागल हुआ है,वह सुखी है,और अन्य सब दुःखी है।

भगवान के सिवा इस जगतमे  और कोई-कुछ भी  है ही नहीं।
ध्यान के  समय द्रश्य (जगत) भी दृष्टा (परमात्मा)में  भगवत्स्वरूप हो जाता है। यह अपरोक्ष साक्षात्कार है।
ऐसी तन्मयता होने पर भक्ति सुलभ हो जाती है।

कपिल उपदेश देते है -माता,इन सबकी अपेक्षा श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए जो व्यक्ति देहभान भूल जाता है,
वह सर्वश्रेष्ठ है,अतः वे श्रेष्ठ है।

प्रेम अन्योन्य होता है। तुम ठाकुरजी का स्मरण करोगे तो वे भी तुम्हे नहीं भूलेंगे।


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