Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-130


एक बार नारदजी वैकुण्ठलोक मे आए। लक्ष्मीजी तो वहाँ  थी किन्तु भगवान नज़र  नहीं आये।
इधर-उधर ढूँढने पर उन्होंने देखा कि  भगवान ध्यान लगाय बैठे है।
नारदजी ने पूछा-आपका किसका ध्यान  कर रहे है?
भगवान ने कहा -मे अपने भक्तो का ध्यान कर रहा हूँ।

नारदजी ने पूछा कि ये वैष्णव क्या आप से भी श्रेष्ठ है,जो आप उनका ध्यान कर रहे है?
भगवान ने कहा -हाँ,वे मुझसे श्रेष्ठ है।
तब नारदजी ने कहा कि -ये कैसे हो शकता है? आप सिध्ध करके बताइये।

भगवान ने कहा -जगत में सबसे बड़ा कौन है?
नारद ने कहा -पृथ्वी।
प्रभु ने कहा- पृथ्वी तो शेषनाग के सिर पर आधार रखती है,फिर वह कैसे श्रेष्ठ है?
नारदजी- तो शेषनाग बड़े है।
भगवान-वह बड़ा कैसे हो गया? वह तो शंकरजी के हाथ का कंगन है। अतः शेष से शिवजी महान है।
फिर भी उनसे बड़ा रावण है,क्योंकि उसने शिवजी सहित कैलास पर्वत को उठाया था।
फिर,रावण भी बड़ा कैसे कहा जाए,क्योंकि बाली उसे अपनी बगल में दबा के संध्या करता था।
और बाली को भी कैसे बड़ा माना जाए क्योंकि उसको रामजी ने मारा था।

नारदजी कहते है--तब तो आप ही श्रेष्ठ है। और मेरा मानना  भी यही है.
भगवान -नहीं,मै भी श्रेष्ठ नहीं हूँ। मेरी अपेक्षा मेरे भक्तजन श्रेष्ठ है क्योंकि
सारा विश्व मेरे ह्रदय में समाया हुआ है किन्तु मै भक्तों के ह्रदय में समाया हुआ हूँ।
मुझे अपने ह्रदय में रखकर ये भक्तजन सारा व्यवहार निभाते है,अतः ये ज्ञानी भक्त ही मुझसे और भी श्रेष्ठ है।

भगवान के भक्त भगवान से भी आगे है,बढ़कर है। मेरे निष्काम भक्त  मेरी सेवा को छोड़कर
सालोक्य,साष्टि सामीप्य,सारूप्य और सायुज्य मुक्ति को भी स्वीकार नहीं करते  है ।
मेरे भक्तजन मेरे प्रेमरूपी अप्राकृत स्वरुप को प्राप्त करते है,जब कि देहमें आसक्त पुरुष अधोगति पाते है।

कपिलजी कहते है -माता और मे क्या कहुँ? ईश्वर से विभक्त हुआ जीव कभी सुखी नहीं हो सकता।
वृद्धावस्था में यह शरीर तो जर्जर होता है,किन्तु मन और बुध्धि जवान ही रहते है।
यौवनमें जो  उपभोग किया था,उन सुखो का मनुष्य बार-बार चिंतन करता रहता है।
वृद्धावस्था में जब दुख सहना पड़ता है,तब उनकी सेवा कोई नहीं करता।
वृद्धावस्था में दुःखी होने पर ममता नहीं छूटती है।
वृद्धावस्था में यह जीभ बड़ी सताती है। पाचनशक्ति के ठीक न होने पर भी बार-बार खाने की इच्छा होती है।
शरीर ठीक रहे,तब तक बाजी हाथ में है। इतने में प्रभु को प्रसन्न करोगे तो बेडा पार हो जायेगा।

बूढ़ा जब खाट में बीमार होकर पड़ा है। तब जिन आप्त-जनो के लिए उसने पूरी जिंदगी पैसे बहाए,
वही लोग मृत्यु के किनारे पहुँचे हुए उस बूढ़े के मरने की बेसब्री से इन्तजार करते है।
कभी-कभी,मरते-मरते,वह बूढ़ा, हमे कुछ देता जाए,ऐसा सोच कर ही कोई आप्तवर्ग उसकी सेवा करते है।
सभी स्वार्थी रिश्तेदार भी आकर बूढ़े के पास बैठते है।
पुत्रियाँ  भी लालची है वे भी आती है और कहती है -पिताजी मुझे  पहचाना। मै आपकी बेटी मणि।
किन्तु उस समय-मणिबहन-मणि का  कुछ भी उजाला दे नहीं शकती
बूढ़ा अब रो रहा है क्योंकि वह जानता है कि स्त्री या संतान कोई भी साथ नहीं जायेंगे। मुझे अकेला ही जाना है।

ऐसा सबके साथ होना है, फिर भी,मनुष्यको  युवावस्था में विवेक नहीं आता है ।


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