Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-132


पशु-पक्षी के अवतारों में कई प्रकार के कष्ट सहन करने के बाद जीव मनुष्य योनि पाता है।
गर्भदान के दिन जीव पानी के बुलबुले-सा सुक्ष्म होता है। दस दिनों के बाद वह फल सा बड़ा होता है।
एक मास  के बाद गर्भ सिर  वाला होता है। दो मॉस के बाद हाथ-पाँव,तीन महीने के बाद बाल-नाख़ून,
चार महीने के बाद सात धातु,पाँच महीनो में भूख-प्यास का ज्ञान,छ महीने माता के पेट में भ्रमण,ऐसा क्रम है।

अनेक जंतु उत्पन्न हो सके,ऐसे विष्ठा-मूत्र से भरे हुए भाग में जीव को रहना पड़ता है। जन्तु के काटने से वह मूर्छित होता है। माता के द्वारा खाई हुई मिर्ची,कटु,खट्टा,गर्म आदि आहार से भी उसके अंगो में वेदना होती है।
इस तरह गर्भ में वह कई प्रकार के कष्ट झेलता है,पिंजरे में बन्द पक्षी की भांति वह कुछ करने में असमर्थ है।

सातवे महीने में जीवात्मा को पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। वह गर्भ में प्रभु को स्तुति करता है।
"नाथ,मुझे बाहर निकालो। गर्भवास और नरकवास एक समान है।
मुझे बाहर निकलोगे तो मै आपकी सेवा करूँगा,भक्ति करूँगा। "
गर्भ में जीव ज्ञानी होता है। भगवान के आगे अनेक प्रतिज्ञा करता है।
प्रसव-समय की पीड़ा के कारण वह पूर्वजन्म का ज्ञान भूल जाता है।
ऐसे,जीव अनादिकाल से बाल्यावस्था में,यौवन में और वृद्धावस्था में दुःख झेलता आया है।

जन्म-मरण के दुःख एक ही समान है। उनका कभी अंत नहीं हो पाता।
जन्म होते  ही जीव को माया का स्पर्श हो जाता है। संसार में माया किसी को भी नहीं छोड़ती।

जीव एक ही चीज से प्रेम करे तो ईश्वर खुश होते है।
पर,जीव बाल्यावस्था में माता से और फिर खिलौने से प्रेम करता है। फिर बड़े होने पर पुस्तको से प्रेम करता है। पुस्तको का मोह उतरने से रूपये-पैसों से और फिर पत्नी से प्रेम करता है। और पत्नी के इशारों पर नाचने लगता है। किन्तु पत्नी-प्रेम भी हमेशा नहीं रहता। दो-चार बच्चो के होने पर -वह फिर,व्याकुल हो जाता है।
प्रभु की माया बड़ी ही विचित्र है। विवाहित भी पछताता है और अविवाहित भी।

अनेक जन्मों से जीव भटकता आया है।
अतः कपिल भगवान कहते है - माता,अपने मन को संसार के विषयों  में से हटाकर प्रभु में स्थित करो।

माता को उपदेश देकर कपिल भगवान वहाँ  से चलने लगे। माताजी से जाने के लिए आज्ञा ली।
कपिल भगवान कलकत्ता के समीप संगम तीर्थ पर आये। आज भी उनके वहाँ दर्शन होते है।
समुद्र ने कपिल भगवान का स्वागत किया।

माता देवहुति सरस्वती के किनारे जा विराजी। स्नान,ध्यान करके मन की शुध्धि की। मन को नारायण की का चिंतन करते-करते मुक्ति मिल गई। उन्हें सिध्धि मिलने के कारण उस गाँव का नाम सिध्धपुर पड़ गया।
देवहूति के उध्धार होने के कारण उसका दूसरा नाम मातृगया पडा।

कपिल गीता यहाँ समाप्त होती है।

अनेक प्रकार के कर्म,यज्ञ,दान,तप ,वेदाध्ययन,वेदविचार,मन-इन्द्रियों का संयंम,कर्मत्याग,
अनेक प्रकारों का योगाभ्यास,भक्तियोग,प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग
और सकाम और निष्काम धर्म,आत्म-तत्व का ज्ञान तथा दृढ-वैराग्य
इन सभी साधनो से सगुण -निर्गुणरूप परमात्मा की प्राप्ति की जाती है।
इन सभी मार्गो से प्राप्त करने का तत्व तो एक ही है - परमात्मा।

स्कंध-३ -समाप्त

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