Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-134


धर्म की गति सूक्ष्म है।
सद्भावना (सत -भावना) के अभाव में किया गया धर्म सफल नहीं होता।
सत् का अर्थ है ईश्वर। ईश्वर का भाव जो मन में प्रत्यक्ष सिध्ध करे उसी का धर्म पूर्णतः सफल होता है।
धर्म-क्रिया सद्भाव (सत-भाव) के बिना  सफल नहीं होती।
जगत के किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखोगे तो वह जीव तुम्हारे प्रति भी कुभाव ही रखेगा।


सभी क्षेत्रों (शरीर या जगत ) में क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) रूप से परमात्मा बसे  हुए है,
इसलिए किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखना ईश्वर के प्रति कुभाव रखने के बराबर है।
शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि किसी जीव के साथ तो क्या,
किसी जड़ पदार्थ के प्रति भी कुभाव नहीं रखना चाहिए।
मनुष्य में जब स्वार्थ बुध्धि जागती है तब वह दूसरे का विनाश करने के लिए तत्पर होता है।


तुम यदि दूसरे के प्रति कुभाव रखोगे तो उसके मन में भी तुम्हारे प्रति कुभाव जागेगा। इसपर एक दृष्टान्त  है।


एक देश में राजा और नगरशेठ गाढ़ मित्र थे। दोनों सत्संग करते और एक दूसरे के प्रति खूब प्रेम था।
नगरशेठ का चन्दन की लकड़ी बेचने का व्यापार था। शेठ का व्यापर अच्छा नहीं चल रहा था।
चार-पाँच साल तक घाटा  रहा। मुनीमजी ने बताया कि चन्दन में दीमक लग गई है ।
बिगड़ा हुआ माल कोई लेता नहीं है। यदि एक साल में चन्दन पूरा नहीं बिकेगा तो व्यापार ठप्प हो जायेगा।
चन्दन जैसी महंगी लकड़ी राजा के सिवा और कौन लेता है ?


स्वार्थ मनुष्य को पागल बना देता है। शेठ ने सोचा कि इस राजा को कुछ हो जाये (मर जाये) तो बहुत अच्छा हो।
वह मर जायेगा तो उसको जलाने के लिए चन्दन के लकड़ी के जरुरत पड़ेगी।
इस प्रकार मेरे  सारा चन्दन बिक जायेगा और व्यापर ठीक चलेगा।


दूसरी ओर राजा के मन में शेठ के प्रति कुभाव जगा।
उस दिन जब वह शेठ से मिलने आया,तब राजा के मन में विचार आया कि
यह शेठ निःसंतान है,यदि यह मर जाए तो उसका सारा धन राज्य भण्डार में आ जाए।
रोज के नियमानुसार सत्संग हुआ तो सही,मगर किसी को (राजा और नगरशेठ को) आनंद नहीं आया।


दो-तीन के बाद राजा के मन में फिर से ये ही विचार पैदा हुए जो कभी पहले नहीं आये थे।
ऐसे विचार  पहले कभी शेठ के बारे में नहीं आये थे। राजा सत्संगी वैष्णव थे।
उन्होंने सारे  विचार शेठ को कह डाले। तब,शेठ ने भी शर्म से खुद के विचार कहे।


शेठ ने कहा कि मेरा चन्दन का व्यापर नहीं चलता है। सबका पोषण करना है। कोई माल लेता नहीं है इसलिए सोचा कि यदि आप मर जाये तो जलाने के लिए चन्दन की जरुरत पड़ेगी और मेरे चन्दन बिक जायेगा।
राजा ने शेठ को उलाहना दिया कि तुमने ख़राब क्यों सोचा?
वैष्णव  होकर ऐसे दुष्ट सोचते हो,तुम्हे शोभा नहीं देता।
तुम्हारे मन में ऐसा विचार क्यों नहीं आया कि राजा अपने महल के दरवाज़े चन्दन के बनवाये
और मेरे चन्दन बिक जाये ? इस प्रकार राजा का मन शुध्ध हो गया और बनिये  का भी।


इसके बाद दोनों में एक दूसरे के प्रति शुभभावना जागी और दोनों सुखी हो गए।


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