शिवतत्व को छोड़ने वाली बुद्धि को संसार में भटकना पड़ता है। उसे दुःख होता है और कभी शान्ति नहीं मिलती।
शिवनिंदा करने वाला कभी काम का विनाश नहीं कर सकता।
शिवजी को लगा कि नंदिकेश्वर दूसरो को शाप दे उससे पहले कैलाश आ गए।
शिवजी ने मन में कुछ भी नहीं रखा। सतीसे भी कुछ नहीं कहा।
भूतकालका जो भी विचार करता है,उसने भूत को ही - घर में रखा है,ऐसा ही समझना चाहिए।
इसके बाद दक्ष ने कनखल क्षेत्र में यज्ञ का आरम्भ किया।
उसने ऐसा दुराग्रह किया कि यज्ञ में मै विष्णु की पूजा करूँगा,शिवजी की नहीं।
देवो ने कहा कि तेरा यज्ञ सफल नहीं होगा। फिर भी दुराग्रह से उसने यज्ञ किया ही।
जिस यज्ञ में शिवपूजा न हो,वहाँ विष्णु भी नहीं पधारते।
कुछ देवता कलह देखने में आनंद आएगा,ऐसा सोचकर आये। विमान में बैठकर देवता जा रहे थे।
सती ने यह देखा, सोचा कि ये देवकन्या कितनी भाग्यशाली है, ये लोग कहाँ जा रहे होंगे?
उन्होंने एक देव-कन्या को पूछा कि-आप सब लोग कहाँ जा रहे हो?
तब देवकन्या ने कहा -आपके पिता के यहाँ यज्ञ है,वहाँ हम जा रहे है।क्या आपको मालूम नहीं है?
क्या आपको आमंत्रण नहीं है?
दक्ष ने द्वेष-बुध्धिसे शिवजी को आमंत्रण नहीं दिया था।
सती को मालूम नहीं था कि पति और पिता के बीच अनबन हुई है। उनका मन पिता के यहाँ जाने के लिए अधीर हुआ। जब,शिवजी समाधि से जागे। तो सती को देख के शिवजी ने कहा-देवी,आज बहुत आनंद में हो?
सती ने कहा-आपके ससुरजी महायज्ञ कर रहे है।
शंकर ने कहा -इस संसार में किसी के घर विवाह तो किसी के घर मरण। संसार सुख-दुःख से भरा हुआ है।
सुखरूप तो एक परमात्मा ही है-तेरे और मेरे पिता तो नारायण ही है।
सती ने कहा-आप कैसे निष्ठुर हो?आप किसी भी सम्बन्धी से मिलना नहीं चाहते।
शंकर -देवी,मै मन से सबसे मिलता हूँ। किसी के शरीर से नहीं मिलता।
प्रत्यक्ष शरीर से किसी से मिलने की मुजे इच्छा नहीं होती।
सती -आप तत्वनिष्ठ है,ब्रह्मरूप है। किन्तु मेरी वह जाने की बहतु इच्छा है।
आप भी चलिए,आपका सन्मान होगा।
शिवजी-मुझे सन्मान की इच्छा नहीं है।
सती -आप सर्वज्ञ हो,मगर व्यवहार का ज्ञान नहीं है। हम किसी के वहाँ नहीं जायेंगे तो हमारे घर कोई नहीं आएगा।
शिवजी-बहुत अच्छा। कोई नहीं आएगा तो बैठे-बैठे राम -राम करेंगे।
फिर शिवजी ने यज्ञ -प्रसंग में उनके अपमान की बात कही। तेरे पिता ने मेरा अपमान किया।
वहाँ जाने में कोई भलाई नहीं है।