अतः उसका अनावश्यक श्रृंगार और लालन छोड़ दो। मानव जीवन तपश्चर्या के लिए है।
जो तप नहीं करता उसका पतन होता है।
मानव अवतार परमात्मा की आराधना और तप करने के लिए है। तप के कई प्रकार है।
कष्ट सहते हुए सत्कर्म करना तप है। उपासना भी तप है। भावसंशुद्धि बड़ा तप है।
सभी में ईश्वर का भाव रखना भी तप है। सभी में ईश्वर विराजित है ऐसा अनुभव करना महान तप है।
अर्थात अंतःकरण की पवित्रता से ह्रदय में सर्वदा शान्ति और प्रसन्नता रहेगी।
प्रिय और सत्य बोलना वाणी का तप है। पवित्रता,सरलता,ब्रह्मचर्य,अहिंसा शरीर सम्बन्धी तप है।
जो सभी की ओर सद्भाव रखे और सभी में ईश्वर के अंश का अनुभव करे वह सफल होता है।
प्रजापति दक्ष ने यज्ञ में शुध्धभाव नही रखा अतः उन्हें दुःख सहना पड़ा।
दक्ष की यह कथा का उद्देश्य हरिहर का अभेद बतलाने का है।
शिव चरित्र की यह कथा वक्ता और श्रोता के पापो को भस्मीभूत करने वाली है।
चौथे स्कन्ध के आठवें अध्याय के प्रथम पाँच श्लोको में अधर्म के वंशजो का उल्लेख है। यह श्लोक महत्त्व के है। पुण्य न कर सको तो कोई बात नहीं किन्तु पाप तो कभी मत करो।
अधर्म की पत्नी का नाम है मृष्णदेवी। उसका अर्थ है-मिथ्या-भाषण करने का बुरा स्वभाव।
उसी से दम्भ का जन्म हुआ। दम्भ का पुत्र लोभ और लोभ का पुत्र है क्रोध।
क्रोध की पुत्री दुरुक्ति अर्थात कर्कश वाणी है।
महाभारत के युध्ध के और रामायण के करुण प्रसंगो के मूल इस कर्कश वाणी में है।
पैर फिसलने से जब दुर्योधन गिर पड़ा तो भीम ने कहा -”अन्धस्य पुत्रः अन्धः”
दुर्योधन ने इन शब्दों से लज्जा और अपमान का अनुभव किया और
परिणामतः महाभारत का दारुण युध्ध छिड़ गया।
सुवर्ण-मृग के प्रसंगमे-सीताजी ने वन में लक्ष्मणको कर्कश वाणीके कुछ शब्द कहे.
तो लक्ष्मणकी इच्छा न होते हुए भी -मारीच राक्षस के छल -भरे शब्दों का पीछा करना पड़ा।
लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण सीता को उठा ले गया और रामायण का आरम्भ हुआ।
अतः कर्कश वाणी का प्रयोग कभी मत करो। कर्कश वाणी से कलि उत्पन्न होता है।
कलि कलह का ही रूप है।
भागवत का उद्देश्य है इन्द्रियों को हरिरस में डुबो रखना।
उसके बाद - अर्थ प्रकरण का आरम्भ होता है।
शान्ति संपत्तिसे नहीं,किन्तु, संयम,सदाचार और अच्छे संस्कारो से प्राप्त होती है।
संपत्ति से विकार वासना बढ़ती है।
अतः धर्म का प्रकरण पहले आता है और अर्थ का बाद में।