Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-146


बादमे ध्रुवजी का आख्यान है।  उत्तानपाद की कथा जीवमात्र की कथा है।

मैत्रेयजी ने मनु महाराज की तीन कन्याओं के वंश का वर्णन किया।
मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद।
उत्तानपाद की दो पत्नियाँ  थी -सुरुचि और सुनीति।
सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था ध्रुव।

जीवमात्र उत्तानपाद है। माता के गर्भ में रहने वाले सभी जीव उत्तानपाद है।
जन्म के समय पहले सिर  और फिर पाँव बाहर आते है। जन्म के समय सभी की ऐसी दशा होती है।
जिनके पैर पहले ऊपर हो और फिर निचे हो गए हो वही उत्तानपाद है।

जीवमात्र की दो पत्नियाँ होती है- सुरुचि और सुनीति। मनुष्य मात्र को सुरुचि प्यारी लगती है।
इन्द्रियाँ जो भी मांगे उन विषयों का उपयोग करने की इच्छा ही सुरुचि है।
सुरुचि का अर्थ है वासना। रूचि का अर्थ है मनपसंद इच्छा।

मन जो भी मांगे,उन्ही भोगों में लीन होने के लिए जो आतुर बने वह रूचि का दास है।
जिसे रूचि से प्यार होगा,उसे नीति कैसे प्यारी लग सकती है?
नीति भले ही विरोध करे,फिर भी इन्द्रियाँ तो स्वभावतया विषयो की और दौड़ती है।
जीभ (इन्द्रिय) जो भी (भोग) मांगे वह उसे मत दो।

मनुष्य को सुनीति से नहीं,सुरुचि से ही प्रेम है। उसे सदाचारयुक्त,सयंम भरा जीवन नहीं भाता।
जीव वासना के अधीन होकर विलासी जीवन जीना चाहता है।
सुरुचि का फल उत्तम है। इसी से सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम है।
उद =ईश्वर और तम =अन्धकार। अन्धकार अज्ञान  है। ईश्वर के स्वरुप का अज्ञान  उत्तम का स्वरुप है।
जो सुरुचि में फ़सा है,और विलासी जीवन जीता है उसे ईश्वर के स्वरुप का ज्ञान नहीं हो सकता।

सात्विक गुण की वृध्धि -संयम और  सदाचारी जीवन जीने से ही होती है।
उत्तम विषय क्षणिक सुख देता है और वह उत्तम सुख क्षणिक विषयानन्द है।
इन्द्रियों और विषयों के सयोंग से जो क्षणिक सुख मिलता है वह सुख नहीं,सुख का केवल आभास होता है।

खुजली को खुजलाने से सुख नहीं,सुख का आभास ही हो पाता है।
भोजन अच्छा होगा तो जरुरत से ज्यादा खा लिया जायेगा जिसे अपचन होगा।
ऊपर से अन्नपाचन की गोली लेनी पड़ेगी। फिर भी,ऐसे समय में रूचि और खाने को कहती है।

जिसका जीवन शुध्ध  है,पवित्र है,उसी को भजनानन्द मिलता है और वही आनंद टिकता है।
नीति के अधीन रहकर जो पवित्र जीवन जीता है,उसी को ईश्वर का ज्ञान मिलता है।

सुनीति से ध्रुव मिलता है। सुनीति का फल और पुत्र ध्रुव है।
ध्रुव का तात्पर्य है-अविनाशी,अनंत सुख का (ब्रह्मानन्द का) कभी विनाश नहीं होता।
जो नीति के अधीन रहेगा,उसे ध्रुव-सा ब्रह्मानंद प्राप्त होता है।

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