Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-147


मनुष्य यदि सुनीति के अधीन होता है तो सदाचारी बनता है,और
यदि मात्र सुरुचि के अधीन होता है तो दुराचारी होता है।

तुम्हारे सामने दो आनंद है। विषयानन्द और परमानन्द। किसे पसंद करोगे?
भजनानन्द ही पसंद करने योग्य है।
पहला आनंद (विषयानंद) क्षणिकसुख देता है और उसका परिणाम दुःखद होता है।
दूसरा आनंद (परमानन्द) शुरू में कष्टदायी है,किन्तु अंत में सुखदायी है।

दो मित्र यात्रा करने  गए। एक की आदत थी कि पलंग-तकिये के बिना उसे नींद नहीं आती थी।
तो,उसने पलंग,और बोरिया-बिस्तर बांध लिया परन्तु मजदूर न मिलने से खुद उठाना पड़ा।
रस्ते में एक सज्जन मिले।
उसकी दशा देखकर कहा कि यह बोझ कितना कष्टदायी है। इसके बिना यात्रा क्यों नहीं करते?
उसने उत्तर दिया -चाहे बोझ मुझे ही क्यों न उठाना पड़े किन्तु रात को सोते वक्त तो बड़ा मझा आता है।
रात्रि के आनंद के लिए पूरा दिन बोझ उठाए  फिरता था। फिर रात को उसे कैसा आनंद आता होगा?

यह कथा किसी और की नहीं,अपनी ही है।
जीवात्मा यात्रा करने निकला है। क्षणिक सुख के लिए मनुष्य सारा दिन गधे की भाँति महेनत करता है।
सारा दिन दुःख का पर्वत सिर पर लेकर चलता रहता है। विषयसुख क्षणिक ही नहीं,तुच्छ भी है।

ध्रुव अविनाशी ब्रह्मानन्द का भजनानन्द स्वरुप है।
जीव जब ब्रह्मानन्द की ओर जाता है तो सुरुचि विघ्न उपस्थित करती रहती है।

उत्तानपाद राजाको सुनीति नहीं ,सुरुचि प्यारी थी। हम सभी की भी यही बात है।
हमे नीति से प्रेम नहीं है किन्तु इन्द्रियों और वासना को बहकाने वाली सुरुचि से ही प्रेम है।

एक बार उत्तानपाद सिहांसन पर बैठे उत्तम को गोदमें खिला रहे थे।
ध्रुव ने जब देखा तो सोचा कि मै भी पिताजी के पास जाऊ तो मुझे भी गोद  में ले लेंगे।
उसने दौड़ के आकर पिता को गोद में बिठाने के लिए कहा।

बालक श्रीकृष्ण का स्वरुप है। उसका कभी अपमान मत करो। बड़े-बड़े महात्मा भी बच्चों के साथ खेलते थे। रामदास स्वामी जब बच्चों से खेल रहे थे,तो शिष्यों ने पूछा कि यह क्या कर रहे है ?
तो स्वामी ने कहा -  बालकों के साथ खेलने में मुझे आनंद मिलता है।
बच्चे अपने मन में जो होता है वैसा ही बोलते है और जैसा बोलते है,वैसा ही करते है।
बच्चे  निर्दोष  होते है। उनपर बचपन से ही,अच्छे संस्कार डालो।

उत्तानपाद ने आनंद से ध्रुव को गोद में लेना चाहा। किन्तु सुरुचि को यह बात अच्छी नहीं लगी।

जीव के पास जब भी भजनानंद आता है सुरुचि बाधा उत्पन्न करती है।
सुरुचिने सोचा कि राजा (जीवात्मा) को ध्रुव (भजनानन्द) मिलेगा तो वासनाधीन नहीं होंगे  
और मेरा कुछ भी काम नहीं बन पायेगा।
सुरुचि ने राजा को ध्रुव को गोद में लेने से रोका। राजा रानी के अधीन था। वह कामांध था।
उसने सोचा कि  मै ध्रुव को गोद में बिठाऊँगा तो सुरुचि नाराज़  होगी।

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