Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-149



सुनीति ने सोचा कि  बालक मेरी तो वंदना कर रहा है
किन्तु विमाता को  भी सद्भाव से वंदना करे तो उसका कल्याण होगा।

पाँच साल का बालक ध्रुव विमाता सुरुचि को वंदना करने गया। वह तो आसन पर अक्कड बैठी थी।
ध्रुव ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और कहा -माँ मै वन में जा रहा हूँ और आपके आशीर्वाद लेने आया हूँ।
एक पल तो सुरुचि का ह्रदय पिघल गया कि -कितना प्यारा  है। अपमानित होने पर भी मुझे प्रणाम कर रहा है.

किन्तु स्वभाव से दुष्ट थी। उसने सोचा कि यदि ध्रुव यहीं पर रहेगा तो उत्तम के राज्य में हिस्सा मांगेगा।
अतः उसने ध्रुव से कह दिया कि--ठीक है। वन में जा रहा है तो मेरा आशीर्वाद है।

स्वाभाव को सुधारना बहुत मुश्किल काम है। इसलिए कहा है -
“कस्तूरी की क्यारी करी,केशर की बनी खाद।
पानी दिया गुलाब का,ताऊ प्याज की प्याज। “
सत्कर्म का फल जब तक ठीक न बढ़ पाए,तब तक स्वाभाव नहीं सुधर पाता।

भागवत की माता पुत्र की तपश्चर्या करने के लिए वन में भेजती है जैसे की सुनीति ने भेजा।
आजकल की माता बालकों को सिनेमा देखने के लिए भेजती है-कि  जा बेटा,तेरा कल्याण हो।
कहते है कि-बालक माता के दोष के कारण चरित्रहीन,पिता के दोष के कारण मुर्ख,
वंश के दोष के कारण कायर और स्वयं के दोष के कारण दरिद्र होता है।

अपनी दोनों माताओं के आशीर्वाद लेकर ध्रुव वन में जा रहा है।
देखिये,मात्र पांच वर्ष का बालक वन में जा रहा है।
ध्रुव सोचता है कि वन में तो हिंसक पशु होंगे। वे मुझे खा तो नहीं जायेंगे?
दूसरे पल फिर सोचता है कि मै अकेला नहीं हूँ।
मेरी माँ ने कहा था कि  मै जहाँ -जहॉ  जाउँगा,नारायण मेरे साथ होंगे।

सभी को प्रणाम करके,सभी के आशीर्वाद लेकर जो व्यक्ति वन में जाता है,उसे रस्ते में संत मिलते है।
झगड़ा करके गृहत्याग करने वाले को न तो राम मिलते है और न माया।

मार्ग में ध्रुवजी सोचते है कि घर में तो माँ बेटा  कहकर  पुकारती थी,
किन्तु यहाँ वन में मुझे कौन बेटा कहेगा?कौन मुझे प्यार करेगा?
वे आगे बढ़ते जा रहे थे की रास्ते में नारदजी आ मिले। ध्रुवजी ने सोचा कि यह कोई संत है।
अच्छे संस्कार के कारण ध्रुव ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

प्रकृति अष्टधा है। अष्टधा-प्रकृति स्वरुप परमात्मा में मिल जाने की इच्छा व्यक्त करने के लिए
साष्टांग प्रणाम कारण है। प्रणाम करने से आत्म निवेदन होता है।
अधिकारी शिष्य को मार्ग में ही गुरु मल जाते है। सद्गुरु और ईश्वरतत्व एक ही है।
परमात्मा और सद्गुरु दोनों व्यापक है। सर्वव्यापी को खोजने की नहीं,पहचानने की आवश्यकता है।

बालक की विनम्रता से नारदजी प्रसन्न हुए। उनका सन्त ह्रदय द्रवित हुआ।  
ध्रुव को उन्होंने गोद में ले लिया। ध्रुव को लगा कि अपनी माता के आशीर्वाद से यहाँ मार्ग में संत मिले।

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