Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-152


अब छठे मास में ध्रुवजीने निश्चय किया कि -
जब तक परमात्मा नहीं मिलेंगे तब तक मे आसन पर बैठा ही रहूँगा और वे ध्यान में मग्न हो गए।
अब जीभसे नहीं,मन से जप करने लगे।
ध्रुव की तपश्चर्या से प्रभावित होकर देवगण ने नारायण से प्रार्थना कि -
अब आप ध्रुवकुमार को शीघ्र दर्शन दीजिए।
भगवान  ने कहा-अब मै  ध्रुव को दर्शन देने नहीं पर उसके दर्शन करने जा रहा हूँ।

निश्चय अटल होगा तो परमात्मा जरूर मिलेंगे।
एक बार पंढरपुर के विठ्ठलनाथ और रुक्मणी के बीच एक संवाद हुआ था।
रुक्मणीजी कहती है -रोज-रोज इतने सारे भक्त आपके दर्शन करने आते है
पर आप तो द्रष्टि झुकाकर  ही रखते है। किसी से भी नहीं मिलते। आखिर ऐसा क्यों?

यह सुनकर भगवान ने कहा -जो केवल मुझसे ही मिलने आते है,उस पर ही मै कृपादृष्टि करता हूँ।
मंदिर में सभी लोग अपने लिए ही कुछ-न-कुछ मांगते है। मुझसे मिलने  शायद ही कोई  आता है।

रुक्मणीजी कहती है -आज इतने सारे भक्त आपके दर्शन के लिए आये पर फिर भी आप उदास क्यों हो?
भगवान ने कहा -ये जो आये है,सभी स्वार्थी है,किन्तु जिसके दर्शन की मेरी इच्छा है,
वह तुकाराम अभी तक नहीं आया है।

इधर तुकाराम बीमार थे। वे बिस्तर में सोए हुए सोच रहे थे कि विठ्ठलनाथजी के दर्शन के लिए मै नहीं जा पाउँगा। क्यों न वे ही दर्शन देने के लिए मेरे घर पर आ जाये। प्रेम अन्योन्य और परस्परावलम्बी होता है।
भगवान ने रुक्मणी से कहा -तुकाराम बिमार होने से इधर नहीं आ सकता,तो चलो हम ही उसके घर चले।

लाखों वैष्णव पंढरपुर के मंदिर में विठ्ठलनाथजी के दर्शन के लिए उमड़ते है
और विठ्ठलनाथ तुकाराम के यहाँ जाते है।
जिस प्रकार सच्चा वैष्णव ठाकुरजी के दर्शन के लिए आतुर होता है,
उसी प्रकार सच्चे भक्त के दर्शन के लिए भगवान भी आतुर होते है।

ध्रुवजी के समक्ष भगवान नारायण प्रकट हुए,किन्तु ध्रुवजी ने आँखे नहीं खोली।
भगवान ने सोचा कि इस तरह तो मै कब तक खड़ा रहूँगा?
ध्रुवजी के ह्रदय में परमात्मा का जो तेजोमय प्रकट स्वरुप था,उसको प्रभु ने अंतरधान कर दिया।

अब ध्रुवजी व्यथित हो गए और आँखे खोली,तो उनके सामने चतुर्भुज नारायण को देखा।
अब तो ध्रुवजी मानो भगवान के दर्शन नहीं कर रहे थे,किन्तु उनकी रूप-ज्योति को पी रहे थे।
बहुत कुछ बोलने की इच्छा है किन्तु कैसा बोला जाये क्योंकि-उनके पास शब्द ही नहीं रहे!!

अपने शंख द्वारा भगवान ने बालक के गाल को स्पर्श किया औ उसके मन में सरस्वती जागृत की।
ध्रुवजी ने परमात्मा की स्तुति कि।
"प्रभु! आप सर्वशक्तिसम्पन्न है। आप ही मेरे अन्तःकरण में प्रवेश करके अपने तेज से मेरी सुषुप्त वाणी को चेतनायुक्त करते है तथा मेरे हाथ,पैर,कान,त्वचा आदि अन्य सभी इन्द्रियों और प्राणों को चैतन्य देते है।
ऐसे आप अंतर्यामी भगवान की मे वंदना करता हूँ। "


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