Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-154



ध्रुवजी को वर दे कर, भगवान अंतर्ध्यान हुए। ध्रुवजी घर आने के लिए निकलते है।
उत्तानपाद राजा अनुष्ठान में बैठे थे। सेवक ने आकर खबर दी।
राजा उठकर ध्रुवजी का स्वागत करते है। धुवजी ने वंदन किया.
ऐसे,ध्रुवजी पिता और विमाता सुरुचि को प्रणाम करके सुनीति के पास गए।

सुनीति का ह्रदय तो हर्ष के मारे इतना भर आया कि वह कुछ भी बोल न पाई।
उसे लगा कि आज वह पुत्रवती हुई है,क्योंकि उसका पुत्र आज भगवान को प्राप्त करके आया है।

समय आने पर ध्रुवजी का राज्याभिषेक और भूमि के साथ विवाह भी किया गया।
ध्रुवजी को गद्दी पर बैठाकर उत्तानपाद राजा वन में तप  करने गए।

एक बार उत्तम शिकार करने के लिए वन में गया। वहाँ यक्ष के साथ युध्ध होने पर उसकी मृत्यु हुई।
ऐसा दुःखद समाचार सुनकर ध्रुव वहाँ पहुँचे और भीषण युध्ध करके वह यक्षों का संहार करने लगे।

उस समय उनके दादा (उत्तानपाद के पिता) मनु महाराज आये और उन्होंने ध्रुव को उपदेश दिया।
उन्होंने कहा -बेटा,वैष्णव युध्ध नहीं करते। विष्णु भगवान प्रेम के स्वरुप है।
अपनी छाती पर लात मारने वाले भृगु ऋषि को भी विष्णु भगवान ने प्रेम ही दिया था।
अपनों से बडो  के प्रति सहनशीलता,छोटो के प्रति दया,समान वयस्कों के साथ मैत्री और
समस्त जीवों के साथ समान बर्ताव करने से सर्वात्मा श्रीहरि प्रसन्न होते है।

तितिक्षा-सहनशीलता,सर्वजन के प्रति करुणा और जगत के प्रत्येक जीव से मैत्री -
इन तीन गुणों से संपन्न व्यक्ति सुखी होता है और उसपर भगवान भी प्रसन्न होते है।

मनु महाराज के उपदेश को सुनकर ध्रुव ने संहार को रोका।

वृद्धावस्था में ध्रुव गंगा किनारे आये है। गंगाजी मृत्यु सुधारती है।
गंगा किनारे उनका प्रेम इतना बढ़ गया कि प्रभु का वियोग उनसे सहन नहीं होता।

भगवान ने अपने पार्षदो को आज्ञा की -मेरे ध्रुव को वैंकुठ में ले आओ।
पार्षद हवाई-जहाज  लेकर ध्रुवजी को लेने आये। गंगातट छोड़कर वैंकुंठ जाने की ध्रुव को इच्छा नहीं थी।
वे सोचते है कि -गंगातट पर रहकर सत्संग,भजन,ध्यान इत्यादि में जो आनंद मुझे मिला है
वह वैंकुंठ में कैसे प्राप्त होगा?
फिर भी,गंगाजी को साष्टांग प्रणाम करके वे अंतिम स्नान करने लगे।
गंगाजी को छोड़ते हुए उन्हें वेदना हो रही है। ह्रदय भर आया है।

ध्रुवजी ने गंगाजी को प्रणाम किया। और प्रभु के भेजे हुए हवाई-जहाज के पास आये।
मृत्युदेव (काल) उनके पास आये है। मृत्युदेव ने शिर  झुकाया है।
ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर एक पाँव रखकर ,दूसरा पाँव हवाई-जहाज में रखा। स्थूल और सूक्ष्म शरीर छोड़ दिया है। उनके पुण्य के कारण माताजी को लेने के लिए भी  दूसरा हवाई-जहाज आया।
ध्रुवजी के साथ-साथ वे भी वैंकुंठ लोक गई।


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