ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर पाँव रखकर विमानमें चढ़े।
काल के काल परमात्मा के साथ जो बहुत प्रेम करता है वह काल के सिर पर पाँव रखकर जाता है।
भक्ति में ऐसी शक्ति है।
ध्रुव चरित्र यह बताता है कि -
अटल निश्चय से कठिनतम कार्य भी सिध्ध होता है। किन्तु यह निश्चय कैसा होना चाहिए?
"कार्य सिध्ध करूँगा और नहीं तो देहत्याग करूँगा। "
बाल्यावस्था से जो भी भगवान की भक्ति करता है उसे ही वे मिल पाते है।
वृद्धावस्था में भजन-ध्यान करने वाले का अगला जन्म सुधरता है।
सुनीति की भाँति तुम भी अपने बालकों में बचपन से ही धार्मिक संस्कारों का सिंचन करो।
ध्रुव चरित्र की समाप्ति करते हुए मैत्रेयजी ने कहा कि-
नारायण सरोवर के किनारे नारदजी तप कर रहे थे,वहाँ प्रचेताओं का मिलन हुआ।
प्रचेताओं ने सत्र किया था और उस सत्र में नारदजी ने ध्रुव की कथा सुनाई थी।
विदुरजी ने पूछा - ये प्रचेता कौन थे?विस्तार से सब कुछ बताइये।
मैत्रेयजी कहते है -ध्रुवजी के ही वंशज ये प्रचेता थे।
ध्रुवजी के वंश में अंग राजा हुआ था। उनकी शादी मृत्युदेव की पुत्री सुनीथी के साथ हुई।
सुनीथी को शाप था कि उसका पुत्र दुराचारी -अति हिंसक और पापी होगा।
अंग और सुनीथी के वहाँ पुत्र हुआ और उसका नाम वेन था। अंग सदाचारी था और वेन दुराचारी।
वेन के शासनकाल में प्रजा बहुत दुःखी हुई।
वेन के राज्य में अधर्म बहुत बढ़ गया जिससे ब्राह्मणों ने उसे शाप देकर उसका नाश किया।
राजा के बिना प्रजा दुखी होने लगी। बेन राजा के शरीर का मंथन किया गया।
निचे के भाग में पाप होने के कारण उसका मंथन करके प्रथम एक काला पुरुष प्रकट हुआ।
वैसे पाप को निकल दिया गया।
फिर ऊपर के पवित्र भाग का,बाहुओं का मंथन किया,अतः अर्चन-भक्तिरूप पृथु महाराज प्रकट हुए।
पृथु महाराज अर्चन भक्ति के स्वरुप है,अतः उनकी रानी का नाम अर्चि है।
अर्चन-भक्ति में पृथु श्रेष्ठ है। वे नित्य महा-अभिषेक करते थे,अतः उनके शासनकाल में प्रजा सुखी हुई।
उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया। इस यज्ञ में अश्व को बंधनरहित करके उसकी इच्छानुसार घुमाया जाता है।
यदि अश्व कहीं बांधा न जाये तो यज्ञ से उसका बलिदान किया जाता है।
अश्व वासना का स्वरुप है। यदि वह किसी विषय के बंधन में ना फंसे तो आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है।
यदि वासना किसी विषय के बंधन में फंस जाये तो विवेक से युध्ध करके उसे शुध्ध करना होता है।
पृथु के इस अश्वमेध यज्ञ में इंद्र ने बाधा उपस्थित की। वे उस अश्व को ले गए।
पृथु राजा जब इंद्र को मारनेके लिए तत्पर हुए,तब ब्रह्माजी बिच में आए,तब पृथु ने इन्द्रका सन्मान किया.
इंद्र ने पृथु का घोडा वापस दिया। पृथु की दया-वृत्ति से उस समय भगवान प्रकट हुए।