स्त्री में अतिशय आसक्त रहने वाले पुरंजन ने अंतकाल में भी स्त्री का चिंतन करते हुए देहत्याग किया,
परिणामतः विदर्भ नगरी में उसे कन्यारूप में जन्म लेना पड़ा।
पुरंजन पुरुष था किन्तु बार-बार स्त्रियों का चिंतन करते रहने से उसे अगले जन्म में स्त्री बनना पड़ा।
कोई हमेशा के लिए पुरुष या स्त्री नहीं रह सकता। वासना के अनुसार शरीर बदलता रहता है।
पुरंजन ने केवल जवानी में ही पाप किया था। पर,बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में तो उसने सत्कर्म किया था।
इन्ही पुण्यों के कारण उसका जन्म एक ब्राह्मण के घर में कन्यारूप में हुआ।
विदर्भ देश-वासी उस कर्मकाण्डी ब्राह्मण के घर में दर्भ का विशेष उपयोग होता था।
मर्यादा धर्म का पालन करने पर उस कन्या का विवाह द्रविड़ देश के "पांड्य" राजा
अर्थात "भक्त" पति के साथ विवाह हुआ।
भक्त (पाण्ड्य) पति के साथ विवाह होनेके बाद उनके घर, एक कन्या और सात पुत्रों का जन्म हुआ।
कन्या का जन्म हुआ उसका मतलब है कि-भक्त के घर भक्ति का जन्म हुआ।
और जो सात पुत्र है, वह-भक्ति के सात प्रकार है-श्रवण,कीर्तन,स्मरण,पादसेवन,अर्चन,वंदन,दास्य
अर्थात सात प्रकार की भक्ति सिध्ध हुई।
भगवान के नाम,रूप,गुण,प्रभाव लीलाओं का -
कान से श्रवण,मुख से कीर्तन और मन से स्मरण करने पर
क्रमशः श्रवण,कीर्तन और स्मरण भक्ति सिध्ध होती है। प्रभु की सेवा करने से अर्चन भक्ति सिध्ध होती है।
प्रभु की मूर्ति को वंदन करने से वंदनभक्ति सिध्ध होती है।
ये सात प्रकार की भक्ति मनुष्य अपने प्रयत्न से प्राप्त और सिध्ध कर सकता है।
किन्तु आठवीं सख्य-भक्ति और नौवी आत्मनिवेदन भक्ति प्रभुकृपा से ही प्राप्त और सिध्ध हो सकती है।
श्रवणादि सात प्रकार की भक्ति सिध्ध करने के बाद,एक बार पति के मृत्यु के समाचार से वह दुःखी हुई .
तब,उस कन्या को परमात्मा ने सद्गुरु के रूप में आकर बोध दिया।
भक्ति के सात प्रकार सिध्ध होने पर परमात्मा सख्य का दान करते है,आत्म-निवेदन का दान करते है।
पुरंजनकी कथा का तात्पर्य है कि-
जिस मित्र (अविज्ञात) को यह जीव (पुरंजन) माया के कारण भूल गया था,वही सद्गुरु के रूप में आया।
इसका अर्थ है कि अविज्ञात के रूप में परमात्मा ने वहाँ आकर ब्रह्मविध्द्या का उपदेश दिया कि -
तू मुझे छोड़कर मुझसे दूर हुआ और नौ द्वार वाली नगरी (शरीर) में रहने गया,तब से तू दुःखी हो रहा है।
तू अपने स्वरुप को पहचान।
तू मेरा मित्र है,मेरा अंश है,मेरा स्वरुप है। तू स्त्री-पुरुषरूप नहीं है। तू मेरी और देख।
पुरंजन प्रभु के सम्मुख हुआ। जीव और ब्रह्म का मिलन हुआ। जीव कृतार्थ हुआ।
चित्त की शुध्धि करने के लिए "वैराग्य" की जरूर है।
मन को एकाग्र करने के लिए "भक्ति" की जरूर है और
सर्व में ईश्वर का अनुभव करने के लिए "ज्ञान" की जरुरत है।
ज्ञान-भक्ति और वैराग्य -तीनो के परिपूर्ण होने पर जीव परमात्मा के दर्शन करके कृतार्थ होता है।