एक बार अमरदासजी ने अपनी माता से पूछा-माता,मे तेरे विवाह के समय कहाँ था?
तो माता ने कहा-बेटा,मेरे विवाह के पश्चात्त तेरा जन्म हुआ है।
तो पुत्र ने कहा-माता,तू गलत कहती है। उस समय मै कहीं पर तो था ही। तो मेरा मूल निवास कहाँ है?
मनुष्य का असली घर परमात्मा के चरण में है.
”मै कौन हूँ “उसका विचार करना है। जीवन के लक्ष्य को भूलना नहीं है।
विषयों में जीव ऐसा फंसा हुआ है कि वह सोचता नहीं है कि वह कौन है।
फिर वह परमात्मा को कैसे पहचान सकेगा?
इस तरह-नारदजी ने प्राचीन बर्हिराजा को पुरंजन का आख्यान कह सुनाया।
इस तरह जीवात्मा की कथा सुनकर प्राचीन बर्हिराजा को आनंद हुआ और बोला कि अब मै कृतार्थ हो गया।
वे अब भगवद-चिंतन करते हुए भगवान में लीन हो गए।
कथा मनुष्य को उसके दोषों से परिचित कराती है और मुक्त भी कराती है।
पूर्वजन्म के प्रारब्ध को झेलना और ऐसा प्रयत्न करना है कि नया प्रारब्ध उत्पन्न ही न हो।
ऐसा पवित्र और सादगीभरा जीवन जियो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त हो जाये।
आत्मा परमात्मा का अंश है। जीवात्मा देह से भिन्न हे। जीवात्मा न तो पुरुष है और न तो स्त्री।
आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाये और देह का विस्मरण हो जाये तो मनुष्य को जीते-जी मुक्ति प्राप्त होती है।
जगत नहीं है,ऐसा बोध(अनुभव) तो मनुष्य को कई बार होता है,
किन्तु अपने स्वयं के अनस्तित्व का बोध उसे नहीं हो पाता। अपने "अहम" का विस्मरण उसे नहीं होता है।
दस हज़ार वर्षो तक प्रचेताओं ने नारायण सरोवर के किनारे जप किया,तभी उनके समक्ष नारायण प्रकट हुए थे।
जप से मन की शुध्धि होती है और जीवन सुधरता है।
रामदास स्वामी ने अनुभव से दासबोध में लिखा है कि तेरह करोड़ जप करने से ईश्वर के साक्षात दर्शन होते है।
जप करने से पूर्वजन्म के पाप जलते है। जप का फल तत्काल न मिल पाए तो मानो कि पूर्वजन्म के पाप
अभी बाकी है,जिनका नाश होना है। इस विषय में स्वामी विध्यारणय का दृष्टांत द्रष्टव्य है।
विध्यारणय की स्थिति गरीब थी। अर्थ-प्राप्ति के हेतु उन्होंने गायत्री मन्त्र के चौबीस पुनश्चरण किए,किन्तु अर्थप्राप्ति न हो सकी। अतः उन्होंने हारकर सन्यास ले लिया। उस समय उन्हें माता गायत्री के दर्शन हुए।
माताजी ने कहा-मै तुझ पर प्रसन्न हुई हूँ। जो चाहे सो मांग ले।
विध्यारणय ने कहा -माताजी,जब आवश्यकता थी तब आप नहीं आई। अब तो आपकी आवश्यकता ही कहाँ है?
हाँ,इतना जरूर बताइये की उस समय आप क्यों प्रसन्न नहीं हुई थी।
माता ने कहा-जरा पीछे मुड़कर देख।
स्वामी ने पीछे देखा तो -वहां चौबीस पर्वत जल रहे थे। उन्होंने माताजी से पूछा कि- यह क्या कौतुक है?
गायत्री माता ने कहा -ये तेरे कई पूर्वजन्मों के पाप है,जो तेरी तपश्चर्या से जल रहे है।
चौबीस पर्वतों के समान महान- तेरे पापोंका जब क्षय हुआ तब मै शीघ्र ही आ गई।
जब तक पापों का क्षय नहीं होता और जीव की शुध्धि नहीं हो पाती,तब तक मेरे दर्शन नहीं हो सकते।
विध्यारणय ने कहा -माताजी मै अब शुध्ध हुआ। अब मुझे कुछ नहीं मांगना है।
आगे जाकर उन्होंने पंचदशी नाम का वेदांत का उत्तम ग्रन्थ लिखा।