Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-161


महाभारत में वर्णित राजा ययाति का उदाहरण दृष्टव्य है।
अपने किये हुए पुण्यों के बल से राजा ययाति सशरीर स्वर्ग में गए। उन्होंने इंद्रासन में बैठने चाहा।
इन्द्र भयभीत होकर बृहस्पति के पास गया और सारी परिस्थिति बताकर मार्गदर्शन माँगा।
बृहस्पति ने इन्द्र से कहा -तू ययाति राजा से पूछ कि उन्होंने पृथ्वी पर कौन-कौन से पुण्य किये है?
जिनके बल से वे इंद्रासन चाहते है। अपने पुण्यों का वर्णन करने से उनके पुण्य का क्षय होगा।

इन्द्र ने बृहस्पति के परामर्श के अनुसार ययाति से पूछा। ययाति ने अपने पुण्यों का स्वयं ही वर्णन किया,
अतः उन पुण्यों का क्षय हो गया और फलतः उनका स्वर्ग से पतन हो गया।

हमेशा याद रखो कि अपने द्वारा किया हुए सत्कर्मो का,पुण्यों का स्वयं वर्णन कभी मत करो।
सारे जगत को कोई भी खुश नहीं कर सकता। जगत को प्रसन्न करना बड़ा कठिन है।

एक पुराना उदहारण है।
एक बार पिता-पुत्र एक घोड़े को लेकर जा रहे थे। पुत्र ने पिता से कहा -तुम घोड़े पर बैठ जाओ,मै चलूँगा।
पिता घोड़े पर सवार हो गया। रास्ते में कुछ लोगों ने कहा -यह पिता कितना निर्दय है। स्वयं घोड़े पर सवार है
और छोटे से पुत्र को धूप में चला रहा है। यह सुनकर पिता चलने लगा और पुत्र को घोड़े पर बैठा दिया।

आगे जाकर फिर कुछ लोग मिले,जिन्होंने कहा,यह पुत्र कितना निर्दय है जो जवान होकर घोड़े पर सवार है
और बूढ़े बाप को पैदल चला रहा है। इनकी बात सुनकर पिता-पुत्र दोने घोड़े पर सवार हो गए।
रास्ते में फिर कुछ लोग मिले औए कहा-कितने निर्दय है ये लोग। दोनों भैंस जैसे है और छोटे से घोड़े पर सवार है। इनके भार से बिचारा घोडा दब जाएगा। इनकी बात सुनकर पिता-पुत्र दोनों पैदल चलने लगे।

रास्ते में आगे फिर कुछ लोग मिले और बोले-कितने मुर्ख है ये लोग!साथ में घोडा है फिर भी पैदल चल रहे है।
एक बैठा तो भी टोका,दो बैठे तो भी निंदा और दोनों पैदल चले तो भी सुनना  पड़ा।

जगत में कैसा व्यवहार रखे,कैसा वर्तन रखे यह समझ में नहीं आता।
किन्तु परमात्मा को प्रसन्न करना कठिन नहीं है। जो परमात्मा को प्रसन्न कर सकता है वह जगत को भी
प्रसन्न कर सकता है। क्योंकि भगवान ही जगत के उपादान-कारण है।

प्रचेताओं को भगवान ने विवाह करने की आज्ञा दी है। प्रचेता घर जाते है। सभी का विवाह हुआ।
एक-एक पुत्र हुआ फिर वे वापस नारायण सरोवर के किनारे आये। वहाँ उनका नारदजी के साथ मिलाप होता है।
उन्होंने कहा -गृहस्थाश्रम  के विलासी जीवन में हम सारा ज्ञान भूल गए है।  हमारा लक्ष्य भूल गए है।
हमको शिवजी और नारायण ने उपदेश दिया था वह भी भूल गए है। आप हमे फिर से उपदेश दो।

प्रभु को प्रसन्न करने के तीन मार्ग नारदजी ने चौथे स्कंध में बताए है।
सर्व जीव पर दया रखो। जो कुछ मिले उससे संतोष मानो। और सर्व इन्द्रियों पर संयम  रखो।
इससे भगवान तुरंत प्रसन्न होते है। (भागवत-४-३ १-१९)

जहर खाने से मनुष्य मरता है। पर जहर का चिंतन करने से मनुष्य नहीं मरता। पर विषय तो ज़हर से भी बुरे है। विषयों का मात्र चिंतन करने से मनुष्य मरता है। इसलिए विषयो का मन से त्याग करो। सर्व इन्द्रिय पर सयंम रखना है।

मैत्रेयजी कहते है -विदुरजी अब आपको क्या सुनना  है?
विदुरजी ने कहा -बस अब जो मैने सुना है उसका चिन्तन करना है। मै  ही पुरंजन हूँ। मै ही ईश्वर से अलग हुआ हूँ।

स्कंध - ४ - (विसर्ग-लीला)  समाप्त।

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